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दण्डनीतिसमुद्देश |
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राष्ट्रकी रक्षा में उपयोग करे ||५||
शुक' नाम के विद्वान्ने लिखा है कि 'जो राजा चोर वगैरहके खोटे धनको अपने खजाने में जमा करता है उसका तमाम धन नष्ट होजाता है ||१||
अन्याय पूर्ण दडसे होनेवाली हानिका निर्देश:
दुष्प्रणीतो हि दंड: कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ॥ ६ ॥
अर्थ :- जो राजा अज्ञानता पूर्वक काम और क्रोध के वशीभूत होकर दंडनीति शास्त्रकी मर्यादा -- अपराधके अनुकूल पात्रादिका विचार करके दंड देना- को उल्लंघन करके अनुचित ढंगसे दंड देता है उसमें समस्त प्रजाके लोग द्वेष करने लगते हैं । ६ ॥
अपराधियों को दंड विधान न करनेसे हानिः---
शुक्र" नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जिसप्रकार खोटे मित्रकी संगति समस्त सदाचार नष्ट हो जाता है, उसीप्रकार अन्याय युक्त दंडसे - अनुचित जुर्माना आदि करनेसे – मिला हुआ राजाका तमाम धन नष्ट होजाता है ||१|| इसलिये विवेकी राजाको काम, कोध, और अज्ञानसे दिये गये दंड द्वारा संचित पापपूर्ण धनका खोटे मिश्र की तरह त्यहा कर देना चाहिये ||२||
तो हि दण्डो मात्स्य न्यायम् त्यादयति, वलीवानल प्रसति इति मात्स्यन्यायः ॥ ७॥
अर्थः- यदि अपराधियों को दंड-प्रयोग सर्वथा रोक दिया जाय, तो प्रजामें मारयन्याय- बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछलीका खाया जाना उत्पन्न हो जायगा । अर्थात जिसप्रकार बड़ी मछली छोटी मछलीको खाजाती है उसीप्रकार बलवान् पुरुष निर्वलोंको कष्ट पहुँचाने में तत्पर होजावेगा ।
भावार्थ:- इसलिये न्यायवान् राजाको अपराधके अनुकूल - न्याय युक्त-दंड देकर प्रजाकी श्रीवृद्धि करनी चाहिये ||७||
गुरु' विद्वानने लिखा है कि 'जो राजा पापयुक्त दंड देता है परन्तु दंड देने योग्य दुष्टों अपराधियोंको नहीं करता, उसके राज्यको प्रजा में मात्स्यन्यायका प्रभार होजाता है-सबल निर्जलको सतान लगता है और ऐसा होनेसे सर्वत्र अराजकता फैल जाता है ||१||
इति दंडनीति समुद्देशः ।
१ तथा च शुकः -- दुष्प्र होतानि च्याणि कोशे मिति यो नृपः । स याति धनं गृह्यगृहानिधिर्यथ। ११॥ २ तथा शुक्रः यथा कुमित्रसंगेन सर्व शोल विनश्यति । तथा पापोन मिश्रं नश्यति तद्धनं ।
चित्कामेन क्रोधेन किंचित्किचिच्च जाग्रतः । तस्माद्दूरेण मत्याज्यं पापवि कु. मित्रवत् ॥ २॥ ३ तथा गुरुः- दण्ड्यं यतिसमन्वितः । तस्य राष्ट्रोन सन्देश मात्स्य न्याय: प्रतिः॥१॥