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मंत्रि-समुद्देश |
गुरु' विद्वान्ने कहा है कि 'जो व्यक्ति राजाकी धन प्राप्तिके उपाय और उसके शत्रु नाश पर ध्यान नहीं देखा, उसके आने हुए शिष्टाचार और नमस्कार आदि व्यवहारोंसे क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं ॥१॥
शस्त्रविद्यामें निपुण होकरके भी भीरुता दिखानेवाले मंत्रीका दोष:--
कि सेन सहायेनास्त्रज्ञ ेन मंत्रिणा यस्यात्मरक्षणेऽप्यस्त्र ं न प्रभवति ॥ १३ ॥
अर्थ:- जिसका शस्त्र - खड्ग और धनुष-बादि - अपनी रक्षा करनेमें भी समर्थ नहीं है ऐसे शस्त्र विद्या प्रवीण सहायक मंत्रीसे राजाका क्या लाभ होसकता है ? कोई लाभ नहीं हो सकता ।
भावार्थ:- जो व्यक्ति युद्ध कला में प्रवीण होकर के भी बोररस पूर्ण बहादुर है, वही राज मंत्री होने के योग्य है । परन्तु जो केवल शस्त्र विद्यासे परिचित होकर कायरता दोपसे अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता वह (डरपोक) राजमंत्री होनेका अधिकारी नहीं है || १३||
उपभा— राम्रनेकी पनि
धर्मार्थकामभयेषु व्याजेन
परीक्षणपधा ॥१४॥
अर्थ- शत्रुके धर्म, अर्थ, काम और भयकी जानकारी के लिये--अमुक शत्रुभूत राजा धार्मिक है ? अथवा अधार्मिक है ? उसके खजानेमें प्रचुर सम्पत्ति है, अथवा नहीं ? वह कामान्ध है ? अथवा जितेन्द्रि म ? बहादुर है ? या डरपोक ? इत्यादि ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से गुप्तचरोंके द्वारा छलसे शत्रु- चेष्टा की परी - करना, यह 'उपधा' या 'उपाधि' नामका राज मंत्री का प्रधान सद्गुण है ।
भावार्थ:-- राजनीतिमें निपुणा मंत्री का कप्तव्य है कि शत्रुभूत राजाकी धर्म-निष्ठा या धर्म-शून्यता के ज्ञानके लिये धर्म-विद्या में निपुण गुप्तचरको उसके यहाँ भेजकर उसकी राजपुरोहितसे मित्रता कराये और गुप्तचरसे कह रक्खे कि उसकी धार्मिकता या पापनिष्ठाकी हमें शीघ्र खबर हो । सदनम्तर शत्रुभूत राजाकी धार्मिकताका निश्चय होनेपर मंत्रीको अपने राजासे मिलकर उस शत्रु राजासे साध कर लेनी चाहिये । यदि वह पापी प्रतीत हो तो उससे विमह-युद्ध करके अपने राज्य की श्री-वृद्धि कर लेनी चाहिये। यह मंत्रीकी 'धर्मोपधा' शक्ति है।
अर्थोपधा - इसीप्रकार मंत्री अर्थ में निपुण गुप्तचर को अपने देशकी वस्तुएँ लेकर बेचने के बहाने से शत्रु के देश मैं भेजे । वह वहाँ जाकर रात्र राजा के कोषाध्यक्ष से मित्रता करके कोष की शुद्धि का निश्चय करे। पश्चात् वापिस आकर मंत्री को सूचित कर देवे। यदि शत्रु राज के पास कोष-धन-रशि अधिक है, तो मंत्रो को उससे संधि कर लेनी चाहिये, यदि शत्रुका खजाना खाली हो रहा हो, तो उससे विग्रह करके राज्य की वृद्धि करनी चाहिये ।
, तथा च गुरुः कि तस्य पत्रद्वारा विशातैः शुभकैरपि यो न विलयने राशो धनोपायं चिमं ॥ १ ॥
२. मू प्रति में 'अशेन' यह पद नहीं है।
'कामनपव्याजेन परिचितपरोक्षरध' ऐसा मु. एवं छ. लि. भू. प्रति में पाठ है, रन्तु अर्थ-भेद नहीं।