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नीतिवाक्यामृत
צד
--इस मंत्री, मित्र या सेवकसे क्या लाभ है ? जो विपत्तिके समय अपने स्वामी या मिश्रकी भी करता किन्तु उल्टा उससे द्रोह करता है, चाहे वह कितना ही विद्वान् और व्यवहार क्यों न हो। मार्ग मार्ट
राजमंत्री को राजद्रोही नहीं होना चाहिये ॥ १० ॥
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करनेवाले मंत्री और सेवकों का रखना निरर्थक है; अतएव
* वामने कहा है कि 'जो विपत्ति पड़नेपर द्रोह करता है, उस मंत्री से राजाका क्या लाभ समस्त गुणोंसे विभूषित ही क्यों न हो || १ !”
समर्थन:
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मोन्येऽसम्मतोऽपि हि सुलभो लोकः * ॥। ११ ॥
पर्क:ह--यह निश्चित है कि भोजनको वेला में बिना बुलाये आनेवाले लोग बहुत हैं। अर्थात् सुखके सभी लोग सहायक होजाते हैं किंतु दुःखमें कोई सहायक नहीं होता। अतएव विपत्ति में सहायता मेवाला पुरुष राजमंत्री पदके योग्य है अन्य नहीं ।। ११ ।।
•देव विद्वान्ने कहा है कि 'धनादिक वैभवके प्राप्त होनेपर दूसरे लोग भी कुटुम्बियोंको अपहार करते हैं; अतः राजाओंको विपत्तिके समय सहायता करने वाले मंत्रीका मिलना दुर्लभ है। कला को क्यों न हो ॥१॥
सहार कुशलता के रहस्यको न जाननेवाले मंत्री का दोष:
किं तस्य भक्त्या यो न वेत्ति स्वामिनो हितोपायमहितप्रतीकारं वा ॥ १२ ॥
-भो मंत्री अपने स्वामी की उन्नति के उपाय (कोष-वृद्धि- आदि) और दुःखोंका प्रतीकार- शत्रु रादि को नहीं जानता, किन्तु केवल भक्तिमात्र दिखाता है 'उस मंत्रीकी केवल भक्तिसे क्या
कोई लाभ नहीं ||१२||
भावार्थ:-को व्यक्ति राजाका हित साधन और श्रति प्रतीकारके उपायोंको नहीं आनता, किन्तु उसकी भक्तिमात्र करता है, उसे राजमंत्री बनानेसे राज्य की श्रीवृद्धि नहीं हो सकती, इसलिये राजा विद्यामै प्रषोण एवं कर्तव्य निपुण पुरुषको मंत्री पद पर नियुक्त करना चाहिये ||१२||
-कि तेन मंत्रिणा यो म्यसने समुपस्थिते । व्यभिचारं करोत्येव गुणैः सर्वैयुतोऽनि वा ॥ १ ॥ हि सुलभ लोक' इसप्रकारका पाटात मु० एवं द० लि० मु० प्रतियों में वर्तमान है, जिसका अर्थ नेत्र की सभा में बहुत से मनुष्य सरता से प्रविष्ट दोजाने हैं। साश यह है कि सुखके समय है, पर संकट के समय उनका मिलना दुर्लभ है।
नि:- प्रश्न विषसिमें महायक पुरुष श्र ेष्ठ हो प्रधानमंत्री पद के योग्य है ।
देव-समृद्धिकाले प्राप्त परी
वजनायते । अकुलीनोऽनि चामायो दुर्लभः स महा ||१|