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दण्डनीतिसमुद्देश।
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गुरु'विद्वान् ने कहा है कि 'राजाको स्मृतिशास्त्रमें निर्देश किये हुए के अनुसार अपराधियोंको जनके अपराधानुकूल बंडदेना चाहिये, जो राजा 'इलो न्यूनाधिक-मी-बहती देता है, बदनापराधियों के पारोंसे लिप्त होजाता है। अतः वह विशुद्ध नहीं होता ।। १॥
विशद-विमर्शः नीतिकार चाणक्य ने भी कहा है कि 'राजाका कर्तव्य है कि यह पुत्र और शत्रु को उनके अपराधके अनुकूल पक्षपात-रहित होकर दंड देवे। क्योंकि अपराधानुकूल-न्यायोचित देख ही इसलोक और परलोककी रक्षा करता है । पंसनीतिके आश्रयसे उसे प्रजाके धर्म, व्यवहार और चरित्रकी रक्षा करनी चाहिये । यद्यपि न्यायालय में न्यायाधीश-जज-के सामने मुकदमें में वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपने २ पक्षको सच्चा कहते हैं एवं वकीलोंके द्वारा अपने २ पचको सत्य सिद्ध करने में प्रयत्न शील रहते हैं। परन्तु उनमें से सच्चा एक ही होता है। ऐसी अवस्थामें दोनों पक्षोंको ठीक २ निर्णय करने वाले निम्न लिखित हेतु हो सकते हैं।
१ दृष्टदोष-जिसके अपराधको देख लिया गया हो, २ स्वयंवाद--जो स्वयं अपने अपराधको स्वीकार कर लेवे, ३ सरलता पूर्वक न्यायोचित जिरह, ४ कारणोंका उपस्थित कर देना । ५ शपथकसम दिलाना । उक्त पापों हेतु यथावश्यक अर्थके साधक हैं अर्थात् अपराधीके अपराधको समर्थन करने वाने हैं। वादी-प्रतिषादियोंके परस्पर विरुख कथनका यदि उक्त हेतुओं से निर्णय न होसके तो साक्षियों और खुफिया पुसिसके द्वारा इसका अनुसन्धान कर अपराधीका निश्चय करना चाहिये।
निष्कर्षः-उक्त प्रबल युक्तियों द्वारा अपराधियोंके अपराधका निर्णय करके यथादोष दंडविधान करनेसे राष्ट्रकी सुरक्षा होती है, अतःअपराधानुरूप दंड विधानको 'दंडनीति' कहा गया है ।।२।। पंज-विधानका उद्देश्यः
प्रजापालनाय राज्ञा दंडः प्रणीयते न धनार्थम् ॥३॥ मर्थ:-राजाके द्वारा प्रजाको रक्षा करने के लिये अपराधियोंको दंविधान किया जाता है, धन प्राप्तिके लिये नहीं।
, तथा ५ गुरु:स्मृयुक्तवचनैर्दण्ड होनाधिक्यं प्रपातयन् । अपराधकपनि लिप्यते न विशुद्धयति । । । २ तथा च चाणक्यःदण्डो हि केवलो लोकं पर चेमं च. रक्षति । राशा पुग्ने च शत्रौ च ययादोषं समं धृतः ।। १॥ अनुशासादि धर्मेण व्यवहारेण संस्थया। न्यायेन च चतुर्थेन चतुरस्ता मही जयेत् ॥ शा परदोषः स्वयंवा स्वपक्षपरपक्षयोः। अनयोगार्जन इतः शपथवार्थसाधका ॥ पूर्वोत्तरार्थव्याघाते साक्षिवातम्यकारये। चारहस्ताच्च निष्याते प्रदेष्टव्यः पराजयः ॥ ४ ॥
कौटिलीय अर्थशास्त्र धर्मस्थानीय तृ• अधि०
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