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धातासमुद्देश।
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शरीर-रचार्थ मनुष्य-कर्तव्यः
अप्रियमप्यौषधं पीयते ॥ २५ ॥ अर्थ:-शारीरिक स्वास्थ्य-रक्षा के लिये विवेकी मनुष्योंके द्वारा करवी औषधि भी --फदवेक्वाथ(काई) आदि भी पीजातो है, पुनः मीठो औषधिके बारेमें सो फहना ही क्या है ? अर्थात् बह वो अवश्य सेवन की आती है। . भावार्थ:-शिष्ट-पुरुष जिस प्रकार लोकमैं अपने शारीरिक स्वास्थ्य-तन्दुरुसोके लिये कड़कों भौषधिका भी सेवन करते है.मीप्रकार उन्हें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अनसिके लिये एवं ऐहिक तथा पारलौकिक सुख-प्राप्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम इन सोनों पुरुषार्थोका अनुहान परस्पर की बाधा-रहित करना चाहिये ।। २५॥
मीतिकार षादीभसिंह सूरि' ने भी कहा है कि यदि धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोका परस्पर की बाधारहित सेवन किया जाय तो उससे मनुष्योंको वाधारहित सुखकी प्राप्ति होती है और ऋमसे मोक्षसुख भी प्राप्त होता है ।।१।।
मर्ग विद्वान्ने भी उक्त मान्यताका समर्थन किया है कि विद्वाम् मनुष्यको सुख-सम्पतिकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी औषधियोंकी तरह धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका अनुष्ठान करना चाहिये। पूर्वोक्त सिद्धान्तका समर्थन:--
___ अहिदष्टा सामाजिरपि दिया।
अर्थः-वह अंगुलि भी जिसमें सर्पके द्वारा उसी काटी-जानेसे जहर चंद गया है, शेष शरीरको रक्षाके लिये काउ दीजाती है। .
भावार्थ:-जिसप्रकार विरैली अंगुलि काट वेनेसे शरीर स्वस्थ रहता है, उसीप्रकार अनुचित तृष्णा-जिससे राजदंद-आदिका खतरा हो ऐसा लोभ-त्याग से ही शरीर स्वस्थ और मन निश्चित रहता है ॥२६॥
किसी विद्वान् नीतिकार ने भी कहा है कि 'पुद्धिमान पुरुषों को शरीरकी रक्षाके लिये वृष्णासालम--- नहीं करनी चाहिये । क्योंकि शरीर के विद्यमान रहनेपर धन प्राप्त होता है, परन्तु अन्यायका धन क्रमानेसे शरीर स्थिर नहीं रहता-राजय भाषिके कारण नष्ठ होजाता है ॥११॥
इति भाता-समुहश:
। 'नामयमान्यौषधं यते' इसप्रकार मुख मा प्रतिमें अशुद्ध घाट है, मालूम पड़सा है कि लैग्नकको असमानीसे ऐसा हुआ है, इसीसे अर्थ समन्वय टीक नहीं होता । यदि इसके स्थानमें 'श्रामयेनाप्यौषधं पीयते। ऐसा पाठ होता, तो अर्थसमन्वय व्याकरण और सं. टी० पुस्तकके अनुकूल होसकता या कि रोगी द्वारा भी तरह की कड़की
और मोटी-मौषधि पाजाती है। सम्पादक:२ तथा व वादीमसिंह सहि:-परस्परविरोधेन त्रियो यदि सेदयते । अनर्गलमतः सौम्यमवयनुक्रमात् ॥१ ३ तथा च पर्ग:-धर्मार्थकामपर्वश्च भववि विपि । यथा सौख्यार्षिक पश्येतथा कार्य विपश्चिता ॥१॥ ७ तथा परिचनोतिकार: शरीराथें म तृष्णा व कया विश्वगः । शारीरेण समा विस सभ्यते मदनभने।"