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* नीतिवाक्यामृत *
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तथ्यपर पहुंचे हैं कि उक्त ऋषभदेवसे लेकर महावीरस्थामी पर्यन्त चतुर्विशति-२४ तीर्थरोंमें से जो मनुष्य जिम तीर्थकुरमें श्रद्धा रखता है उसे उसकी प्रतिष्ठा--भक्ति, पूजा या उपासना करनी चाहिये ऐसा प्राचार्यश्रीका अभिप्राय है ॥१७॥ पिना भक्तिके उपासना किये हुए देवसे हानि:
अभक्त्या पूजोपचारः सद्यः शापाय' ||१८|| अर्थः-प्रबाके बिना की हुई ईश्वर-भक्ति तत्काल अनिष्ट करनेवाली होती है।
भावार्थ-जिस प्रकार विना श्रद्धाके सेवन की हुई औषधि अरोग्यता न करके उल्टी बीमारीको बढ़ाती है, उसी प्रकार विना श्रद्धाके उपासना किया हुश्रा देष भी अनिष्ट कारक होता है। क्योंकि उसमे भसके मानसिक क्षेत्रमें विशुद्ध भावनाओंका बीजारोपण नहीं होता अत: उसे कोई लाभ नहीं होता || वर्ण-आश्रमके लोगोंके कर्तव्य ज्युस होनेपर उनकी शुद्धिका निर्देशः
वर्णाश्रमाणां स्वाचारप्रच्यवने" प्रयीतो विशुद्धिः॥१६॥ अर्थ:-जब प्राण-श्रादि वर्णो के तथा ब्रह्मचारी और गृही-आदि आश्रमों के मनुष्य अपने २ धर्मकर्तव्य से विचलित होने लगे तो उनको उपडे । बर्मशास्त्र--प्राचारशास्त्र-संबंधी प्रायश्चित्तविधान द्वारा अपनी विशुद्धि कर लेनी चाहिये ॥१६॥
राजा और प्रजाको त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम-की प्राप्तिका उपाय:
स्वधर्माऽसंकरः प्रजानां राजानं त्रिवर्गणोपसन्धत्ते ॥२०॥
अर्थ:-जिस राज्यमें अपने धर्मका संकर--एक वर्णवाले मनुष्योंके धर्ममें दूसरे वर्णवाले मनुष्यों के धर्मका मिश्रण ( मिलावट ) नहीं होता अर्थात् समस्त प्राणादि वर्णोके मनुष्य अपने २ धर्मका पालन स्वतन्त्र रीतिसे करते हैं, यहाँ राजा और प्रजाके लोग धर्म, अर्थ और काम पुरुषायोंसे अलकत होते हैं ॥२०॥ .
नारद' विद्वान्ने लिखा है कि 'जिसके राज्यमें प्रजाके धर्ममें वर्णसंकरता-क वर्णवाले कर्तव्यमें दूसरे वर्णवालेके कर्तव्योंकी मिलाक्ट नहीं है, उसको धर्म, अर्म और काम पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं ।।शा'
, प्रभाकतः पूजोपचारः सद्यः शापाय भवतिः ऐसा मु, म, प्रतिमें पाठ है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं । २ 'स्वाचारप्रयुती' ऐसा मु०म० पुस्तकमें पाठ है अर्थमेद कुछ नहीं। ३ स्वस्वधर्माऽसङ्करः प्रजा राजानं च त्रिवर्गुणोपसन्धते' ऐश। मु. म. पुस्तकमें पार है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं। सम्पादकतथा च नारदः :-- न भूयाद्यत्र देशे तु प्रजानां वर्णसंकरः। तत्र धर्मार्थकामं च भूपतेः सम्प्रजायते ||