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* नीतिवाक्यामृत
निष्कर्ष:-- श्रहिंसा और सत्य श्रादि साधारण धर्म सभी वर्णवाले पुरुषोंको पालन करना चाहिये, परन्तु विशेष धर्म में यह बात समझनी चाहिये कि शास्त्रकारोंने जिस वर्ण या जिस आश्रमके जो २ विशेष कर्त्तव्य बताये हैं वे कत्तंव्य उस वर्ण और को विशेष-पालने योग्य है, को नहीं ||१४||
साधुओं का कर्तव्य:
निजागमो मनुष्ठानं यतीनां स्वो धर्मः
||१५||
अर्थः- अपने शास्त्र - आचारशास्त्र में कड़े हुए कर्त्तव्यों का पालन करना मुनियोंका अपना ध है ।। १५ ।।
चारायण "विद्वान् ने लिखा है कि अपने आगम में कहे हुए कर्त्तव्यों का पालन करना साधुओंका धर्म कहा गया है, इससे भिन्न अधर्म है ||१|| कर्तव्यच्युत होनेपर साधुका कर्तव्य:
स्वधर्मव्यतिक्रमेण यतीनां स्वागमोक्तं प्रायश्चित्तम् ॥१६॥
अर्थ :- यदि मुनि लोग अपने कर्तव्यसे च्युत हों तो उन्हें अपने श्रागम - प्रायश्चित शास्त्र में कहा हुआ प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये ||१६||
श्रभीष्ट देव की प्रतिष्ठाका निर्देश:
यो यस्य देवस्य भवेच्छ्रद्धावान् स तं देव प्रतिष्ठापयेत् ॥१७॥
अर्थ :- जो मनुष्य जिस देवमें श्रद्धायुक्त है उसे उसकी प्रतिष्ठा-उपासना करनी चाहिये ।
बिमर्श: --- यथपि आराध्य देव के विषय में कही हुई उक्त बात राजनैतिक उदार दृष्टिकोण से अनुकूल होनेपर भी धर्म-नीति से कुछ असम्बद्ध- प्रदर्शनसे प्रतिकूल (विरुद्ध) प्रतीत होती है; क्योंकि इसमें भाराज्य – – देवके वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी आदि सद्गुणों की उपेक्षा की गई है। परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि आचार्यश्रीने भागे दिवसानुष्ठान समुद्देशके ६६ वें सत्र 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामू : पुरुषविशेषो देवः' में स्पष्टोकरण किया है, कि ऐसे पुरुषश्रेष्ठको देव- ईश्वर कहते हैं; जोकि समस्त प्रकार
१ तथा च चाराय
स्वागमोक्त मनुष्ठानं यत् स धर्मों निजः स्मृतः ।
लिङ्गिनामेव सर्वेषां योऽन्यः सोऽधर्मलक्षणः ॥१॥
२ 'धर्मव्यतिक्रमे यतीनां निजागमोक्रमेव प्रायमिचलन' देशा मु० सू० पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है।
३ यो यस्मिन् देवे श्रद्धां स खलु तं देवं प्रतिपत्' पेसा मु० ० और ६० लि० मू० प्रतियों में पाठ है तुर्थभेद कुछ नहीं ।
आचार्यश्रीने यह बात अपने राजनैतिक उदार दृष्टिकोण से कही है कि जिन का व्यक्ति जिस देवमें श्रद्धा रखता है उसे उसकी उपासना करनी चाहिये। ऐसा होनेसे उदार-युक्त राजा के द्वारा प्रजा वर्ग के किसी व्यक्तिको ठेस नहीं पहुंच सकती ।