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* नीतिवाक्यामृत
भगवजिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णोंकी सेवा-शुभवा करना और शिल्पकला - चित्रकला - श्रादिसे जीविका करना इत्यादि शूद्रोंकी जीविका अनेक प्रकार की निर्दिष्ट की गई है |
प्रशस्त - - उत्तम-शूका निरूपण:--
सकृद परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः || ११||
अर्थ:- जिनके यहाँ कन्याओं का एकबार ही विवाह होता है--पुनर्विवाह नहीं होता से सम्-प्रशस्त (उत्तम) शुद्र कहे गये हैं।
विमर्शः -- भगवजिनसेनाचार्य ने शूद्रोंके दो भेद किये हैं १ कारु २ अकारु । धोबी, नाई और चमार श्रदि कारू और उनसे भिन्न अकारु । कारु भो दोप्रकार के हैं १ दृश्य - स्पर्श करनेयोग्य और २ अ श्य-स्पर्श करने के योग्य । प्रजासे अलग रहने वाले चमार और भंगी आदि - अस्पृश्य और नाई are स्पृश्य कहे जाते हैं ।
यद्यपि उक्त भेदोंमें सत्-शूद्रोंका कहीं भी उल्लेख नहीं है, परन्तु श्रचार्यश्री का अभिप्राय यह है कि स्पृश्य- शूद्रों-नाई वगैरह में से जिनमें पुनर्विवाह नहीं होता उन्हे सत्-शूद्र समझना चाहिये । क्योंकि पिंडशुद्धि के कारण उनमें योग्यता अनुकूल धर्म धारण करनेकी पात्रता है ||११|| प्रशस्त राष्ट्रों में ईश्वरभक्ति - श्रादिकी पात्रता :
याचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः
करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ॥१२॥
अर्थः- सदाचारका निर्दोष पालन - भद्यपान और माँस-भक्षणादिको त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और परिप्रहपरिमाण इन पाँचों व्रतोंका एकदेश- श्रब्रव रूपसे - पालन करना, गृहके बर्तन और वस्त्रादिकों की शुद्धि-स्वच्छता और शारीरिक शुद्धि-अहिंसा आदि व्रतोंका पालनरूप प्रायश्वित विधि शरीरको विशुद्ध करना ये सद्गुण प्रशस्त शूद्रको भी ईश्वर भक्ति तथा द्विल--त्राह्मण और तपस्वि यी सेवा योग्य बना देते हैं।
निष्कर्ष::- उक्त ११वें सूत्रमें आचार्यश्रीने प्रश-वशूद्रका लक्षण -निर्देश किया था। १२ सूत्रद्वारा निर्देश करते हैं कि उनमें उक्त आचार-विशुद्ध और गृह के उकरणों की शुद्धि आदिका होना अनिवार्य है तभी वे ईश्वर, द्विजाति और तपस्थयों की सेवा के योग्य हो सकते हैं; अन्यथा नहीं । यह आचार्यश्री का अभिप्राय है ॥१२॥
१ तथा च भगवजिनसेनाचार्य:
शुभ पातद्बुद्धि का स्मृता ॥३॥ • श्रादिपर्व १६:
२ देवी आदिपुराण पर्व १६ या नीतिवाक्यामृत पृष्ठ ६५ यो
३ श्राचाराश्नवचत्वं शुचिकरस्वरः शरीरशुद्धि
ऐसा पाठ ० ० पुस्तक में है परन्तु
कति जानपि देव हमास उपस्थि परिकर्मसु बोम्पान् मेद कुछ नहीं है।