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* नीतिवाक्यामृत *
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देवाकारोपेतः पाषाणोऽपि नावमन्येत तत्किं पुनर्मनुष्यः १ राजशासनस्य मृत्तिकायामिव लिंगिषु को नाम विचारो यतः स्वयं मलिनो खलः प्रवर्धयत्येव धीर धेनूनां, न खलु परंपामाचारः स्वस्य पुण्यमारभते किन्तु मनोविशुद्धिः ॥३०॥
अर्थः-ईश्वरके आकारको प्राप्त हुआ पाषाण-प्रतिष्ठित देवमूति - भी जब तिरस्कार करने योग्य नहीं है तो क्या मनुष्य तिरस्कार करने योग्य है ? अर्थात् नहीं है।
भावार्थ:-जिस प्रकार प्रतिष्ठित देवमूर्तिकी भक्ति की जाती है उसी प्रकार नैतिक मनुष्यको गणो पुरुषोंकी यथा योग्य विनय-सेवा-शुश्रुषा करनी चाहिये।
राजाकी मिट्टीकी मूर्तिके समान नैतिक मनुष्यको साधुजनोंके वेशमें विचार नहीं करना चाहियेउनके वाह मलिन वेषपर दृष्टि नहीं डालनी चाहिये-ध्यान नहीं देना चाहिये।
भावार्थ:-जिस प्रकार राजाकी मूर्ति में मिट्टी और मलिनता-पादिका विचार न करके प्रजाजनोंको उसकी आज्ञाका पालन अनिवार्य और मोवश्यक है, उसी प्रकार नैतिक और धार्मिक व्यक्सिको साध महापुरुषोंके वाब मलिन वेषपर विचार न करके उनके त्याग, तपश्चयो, सदाचार और पहुश्रत विचा श्रादि सद्गुणोंसे लाभ उठाना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि तिली आदिका खल मलिन–काला होनेपर भी गायोंको खिलाये जानेपर उनके दूधकी वृद्धि करता है, उसी प्रकार राजाका शासन
आज्ञा-मलिन-कठोर होनेके कारण राजसिक भाषोंसे युक्त होनेपर भी वर्णाश्रम धर्मकी मर्यादाका स्थापनरूप विशुद्ध कार्यको उत्पन्न करता है। इसी प्रकार साधुका मलिन बाझ वेष भी मानसिक विशुद्धिका कारण होनेसे पुण्य कार्यको उत्पन्न करता है-प्रसन्न मनसे उपासना किये गये साधुजन भी हमारे पुण्यकी वृद्धि करनेमें समर्थ होते हैं।
क्योंकि दूसरोंका आचार-बाल साफ-सुथरा रहन-सहन आदि-हमारे पुण्यको उत्पस नहीं करता किन्तु मानसिक विशुद्धिसे वास्तविक शुक्ल पुण्यका अंध होता है ॥३०॥
आक्षण, क्षत्रिय, वणिक और कृषकोंकी प्रकृति-स्वभाव का क्रमशः निरूपण:दानादिप्रकृतिः प्रायेण ब्रामणानाम् ॥३१॥ बलात्कारस्वभावः क्षत्रियाणाम् ॥३२॥ निसर्गतः शाट्य किरातानाम् ॥३३॥ ऋजुवक्रशीलता सहजा कृषीवलानाम् ३४॥
१उन मन्त्र मु०म० पुस्तकसे संकलन किया गया है, संकटी पुस्तकों तथा गर्न लायरी पनाकी .. लि. म० प्रतिमें 'दीना हि प्रकृतिः प्रायेय ब्राह्मणानाम् ऐसा पाठ है जिसका अर्थ:--निश्चयसे प्रायः करके--अधिकता सेबामणोका स्वभाष दीन-सीधा-साधा (अल-कपट-आदिसे रहित ) होता है।
२ 'किरातकानाम् ' ऐसा पाठ मु. मा. प्रतिमें वर्तमान है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं है। स्मोकि कीर्यो. धनानि एभिस्ते किरताः। त एवं 'किरातका विणिजइत्यर्थ: । अर्थात् जो व्यापार-श्रादि उपायोसे पन-संचय करते हो उन वणिजनोंको 'किरात' कहते है। सम्पादक: