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* नीतिवाक्यामृत और
तुम सदा अपनी चित्तवृत्ति-मानसिक अभिलषित कार्यको छिपाये रखना । काम करनेसे पहले यह न प्रकट हो कि तुम क्या करना चाहते हो ? क्योंकि जो पुरुष अपने मन्त्र-सलाह- को छिपाये रखते है
और शत्रुओंके मन्त्रको फोड़-फाड़कर जान लेते हैं वे शत्रुओंके लिये सदा अगम्य (न जीतने योग्य) रहते हैं।
जैसे सूर्य तेजसे परिपूर्ण है और सब आशानों-दिशाओं-को ज्यान किये रहता है तथा भूमा जो पर्वत हैं उनके शिरका अलङ्कार रूप है उसके कर-किरणें-बाधाहीन होकर पृथ्वीपर पड़ती हैं, वैसे ही तुमभी तेजस्वी होकर सबकी प्राशाओंको परिपूर्ण करो और भूभृत् जो राजा लोग हैं उनके सिर-ताज पनो, तुम्हारा कर-टेक्स-पुथ्वीपर वाधाहीन होकर प्राप्त हो – अनिवार्य हो ॥१०॥
इस प्रकार राजाने उक्त नैतिक शिक्षाके साथ साम्राज्य-सम्पत्ति अपने पुत्र-श्रीवर्मा को दी । उसने भी पिताके अनुरोधसे बसे स्वीकार किया । सुपुत्र वही है जो पिताके अनुकूल कार्य करे ॥११॥
निष्कर्षः-५ स्प्रमें निर्दिष्ट शास्त्रोंका अध्ययन, ईश्वर-भक्ति और पात्रदान के साथ २ सक्त प्राणि रक्षा आदि सत्कर्तध्य तधियोंके जानने चाहिये ।।८।। वैश्योंका धर्मनिर्देशः
चार्ताजीवनमावेशिकपूजनं सत्रप्रपापुण्यारामदयादानादिनिर्मापणं च विशाम् ॥६॥
अर्थः-वैश्योंका धर्म-खेती, पशुओं की रक्षा, व्यापार द्वारा जीवन-निर्वाह करना, निष्कपट माबसे ईश्वरकी पूजा करना, सदा अम-विसरण करनेके स्थान-सदायत पानी पिलाने के स्थान--प्याऊ-बनधाना, अन्य पुण्य-कार्य-शिक्षामन्दिर, कन्या विद्यालय और विधवाश्रम प्रावि-बनाना, जनता विहारफे लिये बगीचे बनवाना और प्राणियोंकी रक्षाके लिये दानशालाएं आदि स्थापित करना है।
काः सदा संवृतचित्तवृत्तिः फलानुमेयानि निजेहितानि । गूढात्ममन्त्रः परमन्त्रमेदी भवत्याम्यः पुरुषः परेषाम् ॥६॥ तेजस्विनः परयतोऽखिलाशा भूभूखिराशेरखरता गतस्य । दिनाभिवस्येव सवाऽपि भूयात् करप्रपातो भुवि निर्वियम्भः ॥१०॥ इति क्षितीशः सह शिष्यासी विमाणयामास सुताय लक्ष्मीम् । सोऽनि प्रतीयेच गुरूपरोधात् पितुः सुपुत्रो मनुकूलपतिः ॥१॥
चन्वयमचरिते वीरनन्दि-भाचार्यः ४ था सर्ग श्योक ३४ से ४५. , पण्यवार्ताजीयनं वैश्यानाम्' ऐसा पाठ मु. और १ लि. म. प्रतियों में है जिसका अर्थ-व्यागर, कृषि और गो-पासन द्वारा जीवन-निर्वाह करना ये वैश्यों के समय है।