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* नीतिवाक्यामत के
१२॥
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जिस तरह सूर्य के उदयसे चक्रवाक पक्षी प्रसन्न होते हैं उसीतरह जिसमें लव प्रजा तुम्हारे अभ्युदन मे खेव-रहित-मुखी-हो, बद्दी गुप्तचरों-जासूसों के द्वारा देख जानकर करो | ||२||
हे पुत्र ! वैभवकी इच्छासे तुम अपने हितैषी लोगोंको पीड़ा मत पहुँचाना; क्योंकि नीति-विशारदोंने कहा है कि प्रजाको खुश रखना-अपने पर अनुरक्त बनाना अथवा प्रजामे प्रेमका व्यवहार करना ही मयका मुख्य कारण है। ॥३॥
जो राजा विपत्ति रहित होता है उसे नित्यही सम्पत्ति प्राप्त होती है और जिस राजाका सपना परिषार पशवर्ती है, उसे कभी विपत्तियों नहीं होती । परिवारके वशयी न होने से भारी विपत्तिका सामना करना पड़ता है ॥४॥
परिवारको अपने वश फरनके लिये तुम हताहता-सद्गुणका सहारा लेना । कुतन्न पुरुषों और सब गुण होने परभी वह सब लोगोंको विशेशी बना लेता है !!
हे पुत्र ! तुम कलि-दोष जो पापाचरण है उससे बचे रह कर 'धर्म की रक्षा करते हुए 'अर्थ' और 'कामको पढ़ाना । इस युक्तिसे जो राजा त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम-का सेवन करता है, वह इसलोक और परलोक दोनोंमें सुख प्राप्त करता है । ॥६॥
सावधान रहकर सक्षा मंत्री-पुरोहित आदि बड़े ज्ञान-वृद्धोंको सलाहस अपने कार्य करना । गुरु (पकपल उपाध्याय और दूसरे पक्षमें बृहस्पति) की शिक्षा प्राप्त करके ही नरेन्द्र सुरेन्द्रकी शोभा या वैभव को प्राप्त होता है ॥७॥
प्रजाको पीदित करनेवाने कर्मचारियों को दंड देकर और प्रजाके अनुकूल कर्मचारियोंको दान-मानादिसे तुम बढ़ाना । ऐसा करनेसे पन्दीअन तुम्हारा कीर्तिका कीर्तन करेंगे और उससे तुम्हारी कीर्वि विधिगन्तरमें व्याप्त होजायगी।
पपा भवस्यम्मुदित जनोऽयमानन्दमायाति निरस्तखेदः ।
सररमाविष चकवाको इन तदेवाचर चारचक्षुः ॥२॥ वाब्धिमूती पाम भाषा मोदीविनय मनमात्मनीनम् । जनानुरागं प्रथम हितासा निबंधन नीतिविदो बदन्ति ।।३।। समागमो निष्येसनस्य रामः स्यात् संपदा निर्व्यसनवमस्य 1 परये स्वकीय परिवार पर तस्मिनावश्ये व्यसन गरीयः । विधिस्मरेन दविहात्मवश्यं शतायाः समुपैहि पारम् । गुरुतोश्यपः इतनः उमस्तमु जयते हि लोकम ||५| पाविरोधेन नयस्त्र परिवमर्षकामी कलिदोषमुकः । मुसया विवर्ग हि निषेत्रमाणो खोकायं पापयति क्षितीराः ||६१ स्वानुमत्या सकले स्वकार्य मदा विधेहि हतप्रमाः । विनीयमानो गुरुग्ण ह नित्य सुरेन्द्रजीला लभवे नरेन्द्र ७) निपडतो वापरामजाना पत्यांततोऽण्यामपसोऽभिषादिम् । गतिस्तवादिगन्तरराणि म्याप्नोत परिवर्तनस्य या