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* नीतिवाक्यामृत स
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श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा ॥४६॥ श्रवणमाकर्णनम् ॥४७॥ ग्रहणं शास्त्रार्थोपादानं ॥४॥ धारणमविस्मरणम्' ॥४॥ मोहसन्देहविपर्यासन्युदासेन ज्ञान विज्ञानम् ।।५० ॥ विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथाविधवितर्कणमूहः ॥५१॥ उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात् प्रत्यवायसंभावनया व्यावर्तनमपोहः ॥५२॥ अथवा ज्ञानसामान्यमूहो ज्ञानविशेषोऽपोहः ॥५३॥ विज्ञानोहापोहानुगमविशुद्धमिदमित्थमेवेति निश्चयस्तत्वाभिनिवेशः । ५४।।
मर्थः-शुश्रूषा-शास्त्र और शिष्टपुरुषों के हितकारक उपदेशको सुननेकी रया, श्रवण-हितकारक अपदेशको मुनना, प्रहण-शास्त्रके विषयको ग्रहण करना, धारण-मधिक समय तक शास्त्रादिके विषय को याद रखना, विज्ञान-संशय, विपर्यय और अनभ्यवसाबरूप मिथ्याशानसे रहित पदार्पका पवार्य निश्चय करना, अह-व्याप्तिज्ञान अर्थात् निश्चय किये हुए धूमादि हेतुरूप पवाओंके पानसे अग्नि पारि साध्यरूप पदार्थोंका शान करना, अपोह-शिष्टपुरुषों के उपदेश तथा प्रबल युक्तियोंसे प्रकृति, तु और शिष्टाचारसे विरुद्ध पदाथोंमें अपनी हानि या नाशफा निश्चय करके उनका त्याग करना और स्वामिनिबेराउक्तविज्ञान और ऊहापोह भादिसे हितकारक पदार्यका छ निश्चय करना-भाठ बुखिके गुपnur अब शास्त्रकार स्वयं सक्त गुणोंका लक्षण करते हैं:
मर्थः-शास्त्र या महापुरुषों के हितकारक उपदेशको प्रवण करनेकी इच्छा करना यह 'सुभगाई।४।। हितकारक मासको सुनना यह श्रवण' है ॥४॥ शास्त्र आदि के हितकारक विषयको प्रहण करना महण' है।॥४॥ शास्त्र भादि के विषयको ऐसा याद रखना जिससे कि बहुत समय तक मूल न सकें इसे 'पारण' गुण कहते हैं | all मोह-अनिश्चय, सन्देह (संशय मर्थात् एक पदार्यमें दो प्रकारका ज्ञान होना जैसे स्थातु-:वह ४ है ? या पुरुष है । इसप्रकार भनेक कोटिका ज्ञान होना) और विपरीशान इन मिथ्यावानोंसे रहित यथार्थ ज्ञान होना इसे 'विज्ञान' कहते हैं ॥१०॥
भारणं कालान्तरेश्वविस्मरणम् इसप्रकार मु.मू. पुस्तकमे और पूना बाकी कावान्तरादविस्मयम् ऐसा पाठ है, पर अर्पभेद नहीं है।
मलित प्रतिमें पर