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* नीतिवाक्यामृत
गुरु' विद्वान भी कहा है कि 'आन्वीक्षिकीविद्यामें आत्मज्ञानका, त्रयीमें धर्म और अधर्मका, वार्तामें कृषि करनेसे होनेवाले उत्तम फल और न करने से कुफलका एवं दण्डनीति में नीति और अनीति अर्थात् सन्धि और विग्रह आदि षाड्गुण्यके औचित्य और अनौचित्यका प्रतिपादन किया गया है ॥१॥
उक्त विद्याओं पर अन्य लोगों की मान्यता और ऐतिहासिक विमर्श:
मनुके अनुयायी त्रयी, वार्ता और दंडनीति, वृहस्पति के सिद्धान्तको माननेवाले वार्ता और नीति तथा शुक्राचार्यको मानने वाले केवल दंडनीति विद्याको मानते हैं, परन्तु आचार्यश्री श्रन्वीक्षिकी त्रयी, वार्ता और दंडनीति इन चारों विद्याओंको मानते हैं। क्योंकि वे भिन्न २ विपयोंको दीपककी तरह प्रकाशित करती हुई लोकका उपकार करती हैं। आर्य चाणक्य को भी उक्त चारों विद्याएँ अभिमत है; क्योंfeat कहता है कि 'विद्याओंकी वास्तविकता यही है कि उनसे धर्म-अधर्म (कर्तव्य - अकर्तव्य) का बोध हो' ।
श्रागमानुकूल ऐसिय-इतिहास - प्रमाण से विदित होता है कि इतिहासके आदिकाल में भगवान ऋषभदेवने प्रजामें उक्त चार विद्याओं में से वार्ता - कृषि और व्यापार श्रादिकी जीविकोपयोगी शिक्षा - का प्रचार किया था । श्रादिपुराण में भगवज्जिनसेनाचार्य ने लिखा है कि भगवान ऋषभदेव तीर्थङ्करने इतिहासके श्रादि काल में अत्र कि प्रजाक जोवननिर्वाहके साधन कल्पवृक्ष नष्ट हो चुके थे, अतएव जीविका के बिना प्रजाके लोग मृत्युकी आशङ्का त्राहि २ कर रहे थे, उस समय उनकी जीविका के साधन अति, मरि, कृषि, विद्या वाणिज्य और शिल्प आदिकी शिक्षा दी थी। समन्तभद्राचार्यने भी यही बात लिखी है। क्योंकि जिस प्रकार ऊपर जमीनमें बाय पैदा नहीं होतीं उसी प्रकार जीविकाके बिना भूखी और व्याकुल जनता भी धान्वीक्षिकी और त्रयी आदि ललित कलाओं को मीखकर अपनी उन्नति नही कर सकती ।
इसलिये जय जाके लोग आजीविका निश्चिन्त हुए तत्र भगवान् ऋषभदेवने उनकी योग्यता तथा शरीर जन्म की दृष्टि उनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों की स्थापना की। पश्चान् उनके जीविकोपयोगी भित्र २ कर्तव्य निर्देश किये। इसके बाद धार्मिक आचार-विचारकी दृष्टिसे उनमें ग्यासकर प्राण, क्षत्रिय और वैश्य इन त्रिवर्णों में ब्रह्मवारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चारों आश्रमोंकी व्यवस्था कर उन्हें उनके धार्मिक सत्कर्त्तव्य पालन करनेका उपदेश दिया |
१ तथा च गुरुः
आन्वीक्षिक्यात्मविज्ञानं धर्माधर्मी त्रयीस्थिती |
तु वार्तायां दण्डनीत्यां नयानयाँ ॥ १॥
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२ देखो कॉटिलीय अर्थशास्त्र पृष्ठ ८ से ३ तक | ३ सिमंत्रिः कृषिविद्यावाणिज्यं शिल्पमेव वा । कर्मामानि पोटा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥ ५ ॥
आदिपुराणे भगवजिनसेनाचार्यः पर्व १६
४ प्रजापतिः प्रथमं जिजीविषुः । शरास कृप्यादिषु कर्मसु प्रजाः ॥ ३ ॥
स्वयंभू स्तोत्रे समन्तभद्राचार्यः ।