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* नीतिवाक्यामृत
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भर अभ्यासका ला
क्रियातिशयविषाकहेतुरभ्यासः ॥ १३ ॥ अर्थ:-विद्याकी प्राणि आदि कार्यो में सहायक परिश्रम करना यह अभ्यास है ।। १३ ।।
हारीत' का कहना है कि शास्त्रों के अभ्यास-निरन्तर मन लगाकर पढ़ने-से विद्या प्राप्त होती है और इससे धन मिलता है एवं उसकी प्राप्तिसे मनुष्य सुखी होता है इसमें कोई सन्देह नहीं ॥ १ ॥ अब अभिमानका लक्षण निर्देश किया जाता है:
प्रश्रयसरकारादिलाभेनात्मनो यदुत्कृष्टत्वसंभावनमभिमानः ॥ १४ ॥ अर्थ:-शिष्ट मनुष्यको सम्जनोंके मध्य में उनके द्वारा जो विनय या सम्मान-सामाजिक था राजकीय आदर और धन्यवाद श्रादि प्रशंसावाचक शब्द मिलते हैं जिनसे वह अपनेको सुखी समझता है उसे 'अभिमान' कहते हैं ॥१४॥
नारद' ने कहा है कि 'आदरके साथ धोड़ा भी धनादिक मिलना सुख देनेवाला है, क्योंकि ऐसा होनेसे उस मनुष्यकी सज्जनोंके मध्य में प्रतिष्ठा होती है ॥ १।। पत्र 'संप्रत्यय' के लक्षणका निर्देश करते हैं:
अतद्गुणे वस्तुनि तद्गुणत्वेनाभिनिवेशः सम्प्रत्ययः ॥१५॥ अर्थ:-निर्गुण पदार्थमें नैतिक चातुर्य से परीक्षा करके उसमें गुणकी प्रतिष्ठा करना संप्रत्यय है ॥१५॥
उदाहरणार्थ:-वीणा आदिके शब्दों को सुनकर परीक्षा करके यह निर्णय करना कि वह सुन्दर है या नहीं। स्पर्शनेन्द्रियसे छूकर यह कोमल है? या कठोर है ? नेत्रोंसे रूपको देखकर यह प्रियरूप है या अप्रिय इत्यादि मानशक्तिके बलसे पदार्थ में गुणका निश्चय करना 'संप्रत्यय' कहा गया है॥१५ ।।।
नारस' विद्वान्ने लिखा है कि 'जो पदार्थ परोक्ष (इन्द्रियोंसे न जानने योग्य-राम, रावण, मुमेरु और परमाणु आदि) है वह भ्यानके द्वारा जाना जाता है एवं जो समीपवर्ती प्रत्यक्ष पदार्थ है वह इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है॥१॥
निष्कर:-प्रत्यक्ष भौर परोक्ष पहायों में मानशकिसे निर्गुण या सगुणका निश्चय करना वह 'संप्रत्यय' सुखका कारण है ।।१५।।
तथा व हारीत:अभ्यासादायी विद्या विद्यया लभ्यते धनम् । धनलाभारसुस्खी मस्यों जायतं नात्र संशयः ॥१॥ २ तथा नारद:सस्कारपूर्वको यो सामः स स्तोऽपि सुखावहः ।
अभिमानं ततो पत्ते साधुलोकस्य मध्यतः।।1। १ तथा च नारदःपरोन्ने यो भवेदः स शेयोऽत्र समाधिना । प्रयतश्चेन्द्रियः सर्वजिगावरमागतः ।। 1।