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ॐ नीविवाक्यामृत *
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भाजित कर दिया जाता है ॥६॥
विजिगीषु राजाको अपनी राज्य-वृद्धि के लिये पराक्रमी-सैनिक और सजानेकी शक्तिसे
प्रतिष्ठाका निरूपण:
मपि न पापं यत्र महान् धर्मानुवंधः ॥४३॥ विस कार्य-दुष्ट-निप्रह-श्रादि-के करने में महान धर्म-प्रजाका संरक्षण-आदिबी है वह वाहसे पापरूप होकरके भी पाप नहीं समझा जाता किन्तु धर्म ही
रोपण विद्वान्ने भी कहा है कि 'नैतिक पुरुषको अपने वंशकी रक्षाके लिये अपना शरीर, ने अपना वंश, देशकी रक्षाके लिये ग्राम और अपनी रक्षाके लिये पृथिवी छोड़ देनी
राजा पापियोंका निग्रह करता है उससे उसे. उत्कृष्ट धर्मकी प्राप्ति होती है क्योंकि उन्हें म मादि पंड देनेसे उसे पाप नहीं लगता ॥२।' निहन करनेसे हानि-- अन्यथा पुनर्गरकस्य शाज्यम् ॥४४॥
-बो राजा दुष्टोंका निग्रह नहीं करता उसका राज्य उसे नरक लेजाता है। मना-प्रशाके कंटक-अन्यायी-आततायियोंका निग्रह न होनेसे उस राज्यकी प्रज्ञा सदा पए कायर राजा नरकका पात्र होता है ॥४४॥
पिवानने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि जिस राजाको सैनिक शक्ति शिथिलती है उसकी प्रजा दुष्टोंके द्वारा पीड़ित की जाती है और उसके फलस्वरूप वह निस्सन्देह
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तपा च पादरायणः-- स मस्या प्रामस्या कुलं त्यजेत् ।
नाम भनेपदस्या मामार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
माना निमहे राजा पर धर्ममवाप्नुयात् । मोपवर्षास्तस्य पापं प्रजायते ॥२॥
पा पुमनरकान्त राज्य ऐसा म० और १ लि. म० प्रतियोंमें पाठ है परन्तु अर्थ-भेद कुछ नहीं है। माताराविमिनो यस्य शैथिल्येन प्रपोज्यते ।
नरक याति स राजा नात्र संशयः ॥३॥