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* नीतिवाक्यामृत *
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-सदा शान्तचित्त रहनेवाले मनुष्यका लोकमें कौन पराभव-सताना और अनादर करताप अर्थात सभी लोग उसका अनादर करते हैं ॥३८|| विद्वालने भी उक्त बाप्तकी पुष्टि की है कि जो मनुष्य सदा शान्तचित्त रहता है उसकी स्त्री भी
परणौका प्रहाल नहीं करती ॥२॥' मायका कर्तव्य निर्देश:
अपराधकारिषु प्रशमो यतीनां भूषण न महोपतीनाम् ॥३६॥ rit -अपराधियों-प्रजा-पीड़क दुष्टों-पर क्षमा धारण करना उन्हें दंड न देना---यह साधु
-शोभा देनेवाला- है, न कि राजाओंका । अतः दुष्टोंका निग्रह करना-अपराधके रना-राजाका मुख्य कर्त्तव्य है ।।३।। किसी नीतिकार ने कहा है कि 'जो राजा दुष्टोंका निग्रह करता है उन्हें अपराधके अनुकूल
यह सुशोभित होता है-उसके राज्यकी उन्नति होती है और जो दुष्टोंके साथ धमाका रखा है उसे महान दूषण लगता है--उसका राज्य नष्ट होजाता है ॥१॥ . . बिससे मनुष्य निंद्य समझा जाता है उसका निरूपण:---
शिक व पुरुष यस्यात्मशक्त्या न स्तः कोपप्रसादौ ॥४०॥
-जो मनुष्य अपनी शक्तिसे क्रोध और प्रसन्नता नहीं करता उसको धिक्कार है-वह सोय है ॥४॥
मास विद्वानने भी कहा है कि जिस राजाकी प्रसन्नता निष्फल है जो शिष्टोंपर प्रसन्न होकरके अनुमह नहीं करता एवं जिसका क्रोध भी निष्फल है-जा दुपीसे ऋद्ध हो करके भी उनका
क्या : मगुः-- ., [सदा तु गाम्नचित्तो यः पुरुषः सम्प्रजायते । .. तस्य भायोऽपि नो पादौ प्रक्षालयति कहिचित् ॥१॥ : मोट:- कोकके प्रथम चरण में 'सदा तु याचिरस्य' ऐसा अशुद्ध पाट था उसे हमने संशोधित एवं
अर्थ-समन्वय किया है। सम्पादक:१ तथा परचमीनिमित्:. बोरामा निग्रहं कुर्यात् दुष्टेषु विराजते ।
मादेष पतस्तेषां तस्य तद्दूषणं परम् ॥३॥
प्रसादो निमायो यस्य कोपरचासि निरर्थकः । जा भवामिछन्ति प्रजाः पपदमिव स्त्रियः ॥1