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* नीतिवाक्यामृत
अर्थः- समस्त वर्ण और आश्रमों में विभक्त प्रजाके लोग इस त्रयी- विद्याके द्वारा। अपने २ सरक पूर्व प्रवृत्ति करनेसे नैतिक आचार-विचारोंके परिपालनमें प्रवृत्त किये जाते हैं ॥ ३ ॥
: स्मृतिग्रन्थों की प्रामाणिकता-निर्देश:--
धर्मशास्त्राणि स्मृतयो वेदार्थसंग्रहाद्वेदा एव ||४||
- धर्मशास्त्र - सिद्धान्तग्रन्थ श्रीर स्मृतियाँ - श्राचारशास्त्र -- इन सब में एक द्वादशाङ्गरूप संकलन किया गया है; अत एव द्वादशाङ्ग श्रवकी तरह वे भो प्रमाणीभूष-सत्य है ||४|| शिक्षक में आचार्यश्री अन्य लौकिक शास्त्रोंके विषयमें भी अपनी उदार नीतिका निरूपण के माननेवाले जैनोंने उन लौकिक समस्त आचार-विचारोंको तथा वेद अस्थाको उतने में प्रमाण माना है जितने अंशमें उनके सम्यक्त्व और चारित्रमें घाव - मे दूषित नहीं होते ।। १॥
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''और वैश्योंके समानधर्म कर्त्तव्य का निर्देश:
अध्ययनं यजनं दानं च विप्रचत्रियवैश्यानां समानो धर्मः ॥ ५ ॥ क- शास्त्रों का पदना, देव, गुरु और धर्मकी भक्ति, स्तुति और पूजा क्षत्रिय और समान धर्म-समान-कर्त्तव्य हैं ॥ ५ ॥
10. -
1 तथा च यशस्तिल के सोमदेव सरि:---
कार कामन्दक भी उक्त घातकी पुष्टि करता है कि 'पूजा करना, शास्त्रांका पढ़ना और दानक्षत्रिय और वैश्योंका समान धर्म है ॥१॥
हिजैनानां प्रमा लौकिको विधिः ।
यानि न यत्र तदूषणम् ॥१॥
भुतिः शास्त्रान्तर' वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ॥ ॥
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विद्वाने भी कहा है कि 'वेदोंका अभ्यास, ईश्वर-भक्ति और यथाशक्ति दान करना यह कब और वैश्योंका साधारण धर्म कहा गया है ॥१॥
तथा चोक्तं कामन्दकेन
माध्ययनदानानि यथाशास्त्रं सनातनः । ब्रह्मक्षत्रियवियां सामान्यो धर्म उच्यते ।
कामकीयनीतिसार ४०१८ श्लोक १८ । हारीत:
दाम्यावस्तथा यशाः स्वशकथा दानमेव च । धर्मः साधारणः स्मृतः ॥११॥
तथा पात्रदान