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* नीतिवाक्यामृत *
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रिका पाय बताते हैं:मनः प्रत्ययापेभ्यः प्रत्यावर्तनहेतुषोऽनभिलाषो वा ॥ २८ ॥ मात्मासे होनेवाले दोपोंको नाश करने के दो उपाय है। (१) अपनी निन्दा करना (२)
करने की इच्छा न करना। विजने लिखा है कि 'आत्मासे यदि अपराध होजावे तो विद्वानोंको उनकी निन्दा करनी भावना नको करनेकी कभी भी इच्छा नहीं करनी चाहिये ॥१॥ at avण निर्देश करते हैं:हितग्रातिपरिहारहेतुरुत्साहः ॥ २६ ॥ -जिस कर्तव्य करने में हिस-अभी-की माप्ति वा अहित-अनिक-का याग होता है हते हैं ॥ २६ ॥
मान्ने लिखा है कि जिस कर्तव्य करनेमें शुभकी प्राप्ति और पापोंका त्याग होकर रदयको पार से खरसाह कहते हैं ॥१॥
स्वरूपका विवरणःला परनिमिचको भाषः ॥ ३० ।। -मुझे इसका प्रमुफ कार्य अवश्य करना चाहिये' इसप्रकार दूसरोकी भलाई के लिये कीजाने
निरिषन प्रकृतिको प्रयत्न कहते हैं ।।३।। पूर्ण विद्वानने लिखा है कि के यमनोकी तरह 'दूसरोंकी भलाई करने में ओ निश्चय करके पित की जाती है उसे प्रयत्न कहते हैं । अर्थात् जिसप्रकार गर्ग नामके नीतिकार विधामकेपपन परोप
सीमकार शिष्ट पुरुष जो दूसरोकी भलाई के लिये अपनी मानसिक प्रवृत्ति करते हैं उसे 'प्रचन' पाहिये ॥१॥
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हो यदि होगाः स्युरले मिन्धा विबुधैः। या व कर्तमा बाबा तेषां कदाचन ।। १ ।।
शुभासित का जायवे पापवर्जनम् । इस पर शि: स उत्साः प्रकीर्तितः।।।। समाप गर्ग:
गये यश्चित्त निश्चित्य धार्यते । मानव र विशे यो गर्गस्य पवनं यथा ॥ १।।