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* नीतिवाक्यामृत *
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मला वातपित्तकफवैषम्यसम्भूतः ॥ २१ ॥
मन्तुक वर्षातपादिजनितं' ॥ २२ ।। वित्यते दरिद्र न्यकारजे' ॥ २३ ॥
रावनेच्छाविघातादिसमुत्थमन्तरजम् ॥ २४ ।।
सपार प्रकार के होते है:-सहज, दोषज आगन्तुक और अन्सर १ ॥ सभी वथा मानसिक भूमिमें पैदा होनेवाले ( काम-क्रोधादि विकारोंसे उत्पन्न परस्त्री-सेवनधामिका और उसका चितवन आदिसे उत्पन्न हुए) दुःखोंको 'सहज' दुःख कहते हैं ॥ २०॥
दिपाहार विहार करनेसे जो बात, पित्त और कफ कुपित्त-विकृत-होते हैं उससे बार-गलगंडाविरूप शारीरिक रोगोंको 'दोषज' दुःख कहा गया है ।। २१ ॥ अनापति, और आतप (गर्मी ) श्रादि आकस्मिक घटनाओंसे उत्पन्न होनेवाले दुःखों
बाद) मादि संवैधी पीड़ाओं-को 'आगन्तुक' दुःख कहा गया है ॥२२॥ विषम-मनुष्योंसे अनुभव किये जानेवाले और तिरस्कार आदिसे उत्पन्न हुए दुःखों-बध-बंधन
बास-जेलखाना-पादिकी सजासे उत्पन्न हुए कष्टों-को 'न्यक्कारज' दुःख कहते हैं। अर्थात् सामोरी वगैरह अपराध करनेसे जो राजदंड-जेलखानेकी सजा आदि-भोगते हैं, उनके उन
म जाति को-को न्यक्कारज-तिरस्कारसे उत्पन्न-दुःख कहा गया है ।। २३ ।। मार, और इच्छाविधात-अभिलषित बस्तु न मिलना-श्रादिसे होनेवाले दुःशको 'अन्त
हा गया है ॥२४॥ भ रका व्यक्ति दोनों लोकोंमें दुःखी रहता है उसका वर्णन करते हैं:नि यस्यैहिकमामुष्मिकं च फलमस्ति यः क्लेशायासाभ्यां भवति विप्लवप्रकृतिः ॥२शा
विसकी बुद्धि निरन्तर दुःख और स्त्रेदके द्वारा नष्ट होगई है उस मनुष्यको ऐहिक और पारप्राप्त नहीं होसफते ॥ २५॥
११ और २२ नं. के सूत्र मु.मू. और .. जि० मू० प्रतियोंमें नहीं है परन्तु स० टो• गुस्तकमें मन एवं प्रारणिक और कम प्राप्त भी है। मोर . २३ का सूत्र न तो मु० मू० प्रतिमें और न गरन लायब्ररी पूनाकी इ. लि. मूलमतियाँम है, .... . टी. पुस्तक में यर्तमान है। विमर्श:-उक्तस्त्रमें यक्कारब-तिरस्कारसे होनेवाले दुखोका
मक है, जिसे प्राचार्यश्रीने 'अन्तराज दुःखम अन्तर्भूत-शामिल कर दिया है एवं दुःखोंमें भी उक्त को स्वतन्त्र नहीं माना, तप या अप्राकरणिक और असम्बद्ध-मूत्र न मालूम कसे बीच में ना घुसा ? इससे हो सकाकारकी मनगान्त रचना अथवा लेखकोंकी असावधानीसे संस्कृत टीकाका कोई अउ जो कि भारय दलोंके निरूपण संबंधों है यहां लिखा हुमा प्रतीत होता है यह प्राचार्यश्रीका रचा हुन्छ। प्रतीत.
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सम्पादक