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* नीतिवाक्यामृत
भगवाम्ने वर्ण और श्राश्रमोंके कर्त्तव्यों को निर्देश करनेवाली 'त्रयी' विद्याका प्रजामें
पान कृषि और व्यापारादिसे संचित सम्पत्ति श्रादिकी रक्षार्थ एवं वर्णं और आश्रमोंके सुरक्षित, पृद्धिंगत और पल्लवित करनेके लिये 'दंडनीति' का प्रचार किया गया । और स्वापार आदि से उत्पन्न होनेवाली मायका कुछ (१६ वां) हिस्सा राजकोषमें दिये जानेका इसके द्वारा संचित कोषकी शक्तिसे सैनिक संगठन किया गया, इस प्रकार दंडनीति विद्याका
इसे शत्रुवर्गसे रक्षा होनेलगी एवं त्रयीविद्या भी वृद्धिंगत और सुरक्षित होनेलगी। दंडनीतिले असड़क और भततायी दुष्टपुरुषोंको दंड (सजा) दिया जानेलगा अर्थात् शिष्टपालन और
ध, विमा, यान और आसनादि षाड्गुण्यका प्रयोगरूप राजनीतिका प्रादुर्भाव हुआ । स्वात् भगवान्ने प्रजामें आन्वीक्षिकीविद्याका प्रचार किया - वर्ण और आश्रमों में विभाजित अपने कर्तय पथमें आरूढ़ करने और अन्यायी प्रजापीड़क आततायियोंसे उसकी रक्षा करने के - कौजदारी और दीवानीके कानून बनाये गये । इस प्रकार व्यवहारोपयागी आन्वीक्षिकी प्रचार किया गया।
. इसके साथ कर्तव्य कर्म करने और अकर्तव्यको त्यागने में प्राणीका शाश्वत कल्याण क्यों १. शरीर और इन्द्रियादिक प्रकृतिसे भिन्न स्वतन्त्र आत्मदव्य है। वह पूर्वजन्म और अपर [करता है और अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मोंके अच्छे और बुरे फल भोगता है इत्यादि पर अनेक प्रवल और अबाधित युक्तियोंका प्रचार किया, इसप्रकार प्रभुने प्रजामें सर्वविद्याओं मम्मीक्षिकीविद्या का प्रचार किया ।
पर इसी आन्वीक्षिकीविद्याकी विस्तृत व्याख्या केवलज्ञान उत्पन्न होने पर की हिंसा, कर्म और ईश्वर-विषयक उत्कृष्टविचार तथा ६ पदार्थ आदि विषयों पर अपनी दिव्यद्वारा अबल एवं अकाट्य - श्रबाधित- युक्तियों से परिपूर्ण दिव्य संदेश दिया- युक्तिपूर्ण भाषण दिये vaints प्रचारका मक्षित इतिवृत्त - इतिहास है । इनका बेत्ता विद्वान् कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र और उद्धार करने में समर्थ होता है ॥ ६३ ॥
चिकी- दर्शनशास्त्र - मे होनेवाले लाभको बनाते हैं:'चेतयते' च विद्यावृद्धसेवायाम् ॥ ६४ ॥
अर्थः मान्वीक्षिकीविद्यामें निपुण मनुष्य विश्वाओं के अभ्यास और बहुश्रुत विद्वान् पुरुषों की सेवा होता है ।। ६४ ।।
भावार्थ:- उत्तसूत्रमें जो वृद्ध शब्द आया है उससे राजनीति और धमनीति आदिके विद्वानको है न कि केवल सफेद बालोंवाले बुढों को ।
- विवेकी पुरुष और राजाका कर्तव्य है कि वह विद्याओं के अध्ययन और विद्वानों स्वा स प्रयत्नशील रहे ॥ ६४ ॥
''पेसा गट सु० और १०० प्रतियों है ।