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* नीतिवाक्यामृत
राग, द्वेष और मोह आदि समस्त पाप कलङ्कको क्षय करनेमें समर्थ और संसारमें उत्पन्न हुए ज्ञानावरण आदि कर्म समुहको नष्ट करनेमें प्रयत्नशील चितवन करें।
इति पार्थिवी धारणा |
आग्नेयी धारणा में निश्चल अभ्याससे नाभिमंडल में सोलह उन्नत पत्तोंवाले एक मनोहर कमलका और उसकी काशिकामें महामंत्र (हं ) का, तथा उक्त सोलह पत्तोंपर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, और अ: इन सोलह अक्षरोंका ध्यान करे ।
पश्चात् हृदयमें आठ पांखुड़ीवाले एक ऐसे कमलका ध्यान करें, जो अधोमुख -- उल्टा (ओवा) और जिसपर ज्ञानावरण और दर्शनावरण आदि ८ कर्म स्थित हों।
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पश्चात् पूर्वचिन्तित नाभिस्थ कमलकी कणिका के महामंत्र की रेफसे मन्द २ निकलती हुई धुएकी शिखाका, और उससे निकलती हुई प्रवाह रूप स्फुलिङ्गोंकी पक्तिका पश्चात् उससे निकलती हुई' ज्यालाकी लपटों का चितवन करे । इसके अनन्तर उस ज्याला (अग्नि) के समूह से अपने हृदयस्थ कमल और उसमें स्थित कर्म -राशिको जलाता हुआ चितवन । इसप्रकार आठ कर्म जल जाते हैं यह ध्यानकी हा सामर्थ्य है ।
पश्चात् शरीरके वाह्य ऐसी त्रिकोण वह्नि (अग्नि) का चितवन करे जो कि बालाओंके समूहसे प्रज्व लित वडवानलके समान, अग्निबीजाक्षर 'र' से व्याप्त वा अन्त में साथियाके चिन्ह से चिन्हित, ऊर्ध्वं मण्डल से उत्पन्न, धूमरहिन और सुवर्णके समान कान्ति युक्त हो। इसप्रकार धगधगायमान फैलती हुई लपटोंके समू हसे देदीप्यमान बाहरका अग्निपुर अन्तरङ्गकी मंत्राग्मिको दग्ध करता है।
तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल आदि को भस्मीभूत करके वाह्य जलाने योग्य - का अभाव होनेके कारण स्वयं शान्त हो जाता है ।
पदार्थ
इति आग्नेयी धारणा ।
मारुती धारणा में ध्यान करनेवाले संयमी पुरुषको आकाशमें पूर्ण होकर संचार करनेवाले, महावेगयुक्त, महायलवान्, देवोंकी सेनाको चलायमान और सुमेरुपर्वतको कम्पित करनेवाला, मेघोंके समूहको वरनेवाला, समुद्रको क्षुब्ध करनेवाला दशों दिशाओं में संचार करनेवाला, लोकके मध्य में संचार करता हुआ और संसार में व्याप्त ऐसे वायुमंडलका चितवन करे । तत्पश्चात् उस वायुमंडल के द्वारा कर्मों के दम्भ होनेसे उत्पन्न हुई भस्मको उड़ाता हुआ ध्यान करे। पुनः उस वायुमंडलको स्थिर चितवनकर उसे शान्त करे। इति मारुती धारणा |
वारुणी धारणा में ध्यानी व्यक्ति ऐसे आकाश तत्त्रका चितवन करे जो इन्द्रधनुष और विजलीकी गर्जनादि चमत्कारसे युक्त मेर्धोके समूहसे व्याप्त हो। इसके बाद अद्धचन्द्राकार, मनोज्ञ और अमृतमय जलके प्रवाहसे आकाशको बहाते हुए वरुणमंडल - जलतत्व का ध्यान करके उसके द्वारा उक्त कर्मोंके रायसे उत्पन्न होने वाली भ्रमको प्रक्षालन करता हुआ चितवन करे ।
इति वारुणी धारणा
तत्वरूपवती-धारणामें संयमी और ध्यानी पुरुष सप्तधातुरहित, पूर्णचन्द्र के सदृश कान्तियुक्त और सर्वज्ञ समान अपनी विशुद्ध आत्माका ध्यान करे। इसप्रकार अभी तक पिवम् ध्यानका संक्षिम विवेचन