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* नीतिवाक्यामृत
नात्मा - आत्मज्ञानी- राजाका लाभ बताते है:
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गा है, अग्य पदस्थ आदिका स्वरूप ज्ञानावि शास्त्र मे आनना चाहिये, विस्तारके भयसे हम विवेचन नहीं करना चाहते ॥ १ ॥
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1. अध्यात्मशो हि राजा सहज - शारीर-मानसागन्तुभिर्दोषैर्न वाध्यते ॥ २ ॥
म:- ओ राजा श्रध्यात्मविद्याका विद्वान होता है यह सहज ( कषाय और अज्ञानसे उत्पन्न होने हासिक और तामसिक दुःख), शारीर (बुखार - गलगण्डादि बीमारियोंसे होने वाली पीड़ा), मानसिक (आदि की लालसा से होनेवाले कष्ट ), एवं आगन्तुक दुःखों (भविष्य में होने वाले - अतिवृष्टि, और शत्रुकृत अपकार आदि कारणोंसे होनेवाले दुःख ) से पीड़ित नहीं होता || २ ॥
इन्द्रियाणि मनो विषया ज्ञानं भोगायतन मित्यात्मारामः ॥ ३ ॥
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[' विद्वानने लिखा है कि 'अध्यात्म विद्याका जानने वाला राजा सहज राजसिक भोर वामआगन्तुक - भविष्य कालमें होनेवाले कष्ट, शारीरिक — बुखार आदि और मानसिक — परकलनसे होनेवाला कष्ट इत्यादि समस्त दुःखोंसे पीड़ित नहीं होता ॥ १ ॥'
आत्मा क्रीड़ा योग्य स्थानोंका विवेचन किया जाता है:
शुभ नारदः
हि महालो न दोषः परिभूयते । -६ प्राण-सुकैश्चापि शारीर मानवैस्तथा ॥ १ ॥ २ तथा विभियेकः
मिनो शानं विषय भोग एव च ।
विपस्य चैतानि क्रीडास्थानानि कृस्नयः ॥ १५
पाठ उत्तम है।
-पुत्रियाँ
रसना
और
ज्ञान और शरीर ये सब आत्मा की क्रीड़ाके स्थान हैं ॥ ३ ॥
निर्भिक विद्वान ने कहा है कि 'इन्द्रियाँ, मन, ज्ञान और इन्द्रियोंके स्पर्श आदि विषय तथा सब आत्माके क्रीड़ा करनेके स्थान हैं || १ | ' मार्क स्वरूपका कथन किया जाता है:यंत्राहमित्यनुपचरितप्रत्यथः स मारमा ॥४॥
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मन विषय ( स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और
जिस पदार्थ में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ और में इच्छावान् हूँ' आदि वास्तविक प्रत्यय-ज्ञानचारा है। अर्थात् 'मैं सुखी हूँ या मैं दुःखी हूँ' इसप्रकार के ज्ञानके द्वारा जो प्रत्येक प्राणीको स्वसंवेदनद्वारा जाना जाये बही शरीर इन्द्रिय और मनसे पृथक, चैतम्यात्मक और अनादिनिधन आत्मद्रव्य है।
ऐसा पाट मु० मू० पुस्तक में है, भन्तु अर्थभेद कुछ न होनेपर भी सं० डी० पुस्तकका उक्त