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* नीशिवाण्यामृत
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नीतिकार नारव' ने कहा है कि 'केवल शिरपर सफेद बालोंके होजाने से मनुष्य को पृद्ध नहीं कहा जाता किंतु जो जवान होकरके भी विद्याओंका अभ्यास करता है उसे विद्वानोंने स्थविर-वृद्ध-कहाहै ॥१॥ अब विधाओं का अभ्यास और विद्वानोंकी सजति न करने वालेकी हानिका निरूपण करते है:
प्रजातवियासयोगो हि राजा निरङ्गशो गज' इव सद्यो विनश्यति ॥ ६ ॥
अर्थः-जो राजा न तो विद्याभोंका अभ्यास करता है और न विद्वानोंको सङ्गति करतापर निश्पयसे उम्मार्गगामी होकर विना अकुशके हाथी के समान शीघ्र ही नष्ट होजाता है।
ऋषिपुत्र विद्वान्ने भी उक्त बातका समर्थन किया है कि "विवाओंको न जानने वाला और फूलोंज्ञानवृक्षों (विद्वानों) की सङ्गति न करने वाला राजा विना अकुशके हाधीके समान उम्मागेगामी होकर सीम नाशको प्राप्त होजाता है ॥१॥
निष्कर्षः-प्रत एक ऐहिक और पारलौकिक श्रेय-कल्याण–पाइने वाले पुरुषों को राजाको वि. पाओका अम्पास तथा बहुभुत विद्वानोंकी सजति करनी चाहिये ||६५ भव शिष्टपुरुषों-सदाचारी विद्वानों-की सकसिसे होने वाले लाभका निर्देश करते हैं:
अनधीयानोऽपि विशिष्टजनसंसर्गाद पर व्युत्पत्तिमवाप्नोति ॥६६॥ अर्थः-विद्यानोंका अभ्यास न करने वाला-मूर्ख मनुष्य-भी विशिष्टपुरुषों-पिसानों-की सारिसे उत्तमज्ञानको प्राप्त कर लेता है-विद्वान् होजाता है।
विधान म्यासने भी लिखा है कि जिसप्रकार चन्द्रमाकी किरणोंके संसर्गसे जहरूप-अमरूप१ तथा च नारदानसेन दो भवति येनास्य पवितं शिरः।
यो युवाप्यधीयान रेवा: स्यविरं विदुः ॥१॥ २ 'वनगज इस ऐसा पाठ मु. और १० लि. मूल प्रतियों में पाया जाता है जिसका अर्य:--'अंगको हापोंके समान है, विशेष अर्यभेद नही।
तथा अषिपुनःयो रिचर्चा वेति नो राजा पवाग्नदोपसेवते । .स शीर्ष नारामायाति निरंकुश व विपः ॥१॥ ४ 'नधीपानोऽयान्वीविकी विशिषर्मसात् परां व्युत्पत्तिमवाप्नोति' ऐसा पाउ मु. और .लि. प्रतियोंमें । जिसका प्रमः-प्रवीमिंकी-नासको न पढ़नेवाला भी है।
तबारबा:विषेत्री सामान जोऽपि हि मनायते। चम्बायसेवनानून बरच कमदारः ।।१।।