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* नोतिषाक्यामृत *
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अब अन्य-नीतिकारों की मान्यताके अनुसार आन्वीक्षिकी विद्या प्रतिपादन करनेवाले दर्शनोंका निरूपण करते हैं:. सांख्यं योगो लोकायतिकं चान्वीक्षिकी चौद्धाहतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् (नान्वीविकोत्वम्) इति . त्यानि मतानि' ॥ ६१॥
अर्थः--सांस्य, योग और चावोकदर्शन-नास्तिकदर्शन-ये मान्धीक्षिकी -अभ्यारम विधाएँ-. हैं अर्थात् अध्यात्मविद्या प्रतिपादक दर्शन हैं। प्रौद्ध और पाईरान-जैनदर्शन-वेदविरोधी होने के कारण अध्यात्म विद्याएँ नहीं हैं, इसप्रकार अन्य नीतिकारों की मान्यताएँ हैं।
विशदविमर्श:-यहाँपर प्राचार्यश्री ने अन्य नीतिकारोंकी मान्यता-मात्रका उल्लेख किया है। क्योंकि अध्यात्म-विधाका समर्थक पाईदर्शन वेदविरोधी होनेमासे प्रान्धीक्षिकी विद्यासे बहिर्मूस नहीं होसकता, अन्यथा उनके ऊपर प्राप्त हुआ अतिप्रसादोष निवारण नहीं किया जासकता अर्थात् सांस्य और नैयायिक
आदि दर्शन भी भाईदर्शन-जैनदर्शन के विरोधी होनेके कारण आन्वीक्षिकी विद्यासे पहिस समझे जासकते हैं। किसीके द्वारा निरर्थक निन्दा कीजाने पर क्या शिष्टपुरुष निन्वाफा पात्र होसकता है ? नहीं होसकता । इनहीं प्राचार्यश्रीने अपने यशस्तिनकचम्पूमें प्राचीन नीतिकारों के प्रमाणों द्वारा माईदर्शनको अध्यात्मविद्या-पान्यीक्षिकी-सिद्ध किया है। . या सूत्र केवल मुस० टी० पुस्तक में नहीं है परन्तु अन्य मभी पुस्तको घरस्वसी भवन प्राकी .लि.. टी• पुस्तक, गवनं० लायनरी पूनाकी ४० कि० मू. दो पुस्तकें और मु.पू. पुस्तक में वर्तमान है। इसलिये हमने उक्त प्रतियों से संकलन किया है। उक सूत्रके पाठ के विषयमें स्पीकरण:(क) सख्यं योगो लोकावतं चान्बोक्षिकी बौडाईवो: अतः प्रतिरक्षिवात्' ऐसा पाठ भावडारम रिसर्च गवर्न.
शायरी पूनाको हस्तलिखित मू० प्रति [न.७३७ जो कि सन् १८७५-७६ में लिखी गई में है। (ख) 'साख्यं योगो लोकायतं चान्धीक्षिकी शैवाईतोः भुने प्रतिपक्षत्वात् ऐसा पाठ पूना मायरोकी.
लि.मू. प्रति-[नं. 1011जो कि सन् १८८७ से 11 में लिखी ग11में। (ग) 'सांख्य योगो लोकायत चाम्पीक्षिकी बौदाईतोः श्रुतेः प्रतिपक्षस्यात् इति नैयानि मतानि' ऐसा पाठ
सरम्पतीभवन श्राराकी हस्तलिखित संस्कृत टी. पस्तक है। (4) सांख्ययोगी लोकायत चान्वीक्षिकी बौदाईतो भुतेः प्रतिपक्षम्यात' ऐसा पार मु. . तक है जोकि
गम्बाके गोपालनारायण प्रेसमें मुद्रित हुई एवं अधेय प्रेमीनीने प्रेक्ति की। २ साल्य योगी कोकायतं चान्यीविकी, तस्यां स्यावस्ति स्थान्नास्तीति नम्नभमणक पति परस्पतिलास पास्त समय कर्ष प्रत्यवतस्थे ? (यशस्तितके सोमदेवरिया...)
अर्थात् यशोधर महाराज अपनी माता चन्द्रमती पा जैनधर्म पर किये हुए भाक्षे (यह अभीक्षामा इत्यादि) का समाधान करते हुए अन्य नीतिकारों के प्रमाणोंसे उसकी प्राचीनता सिद्ध करते कि 'गल्प, योग और चार्वाकदर्शन ये प्रान्वीक्षिकी विद्याएं हैं और उसी प्रान्धीक्षिकी--अध्यात्मविद्या-में अनेकान्त (वस्तु अपने स्वरूपादि पतुष्टयकी अपेक्षा रुद्रूप-विद्यमान है और परचदृष्टयकी अपेक्षा असर-अविधमान-१ इत्यादि ) का समर्थक
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