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अब नीतिशास्त्रसे विरुद्ध कामसेवनसे होनेवाली हानि बताते हैं:--
विरुद्धकामवृत्तिः समृद्धोऽपि न चिरं नन्दति ॥ १४ ॥ अर्थ:-जो मनुष्य नीतिशास्त्रसे विरुद्ध कामसेवनमें प्रवृत्त होता है-परस्त्री और बेश्यासेवन पादि अन्यायके भोगों में प्रवृत्ति करता है वह पूर्वमें धनाध्य होनेपर मी पश्चात् चिरकालतक धनाका नहीं हो सकता--सदा दरिद्रताके कारण दुःखी रहता है।
भावार्थ:-क्योंकि ऐसी असत् -नीतिविरुद्ध कामप्रतिसे पूर्वसंचित प्रधुरसम्पत्ति बर्वाद-लए हो. जाती है तथा व्यापार आदिसे विमुख रहने के कारण उसरकालमें भी सम्पत्ति नहीं प्राप्त होती अतः दरिद्रताका कष्ट उठाना पड़ता है।
निष्कर्षः-अतः नैतिक पुरुषको नीतिविरुद्ध कामसेवन-परस्त्री और बेश्यासवनका सदा स्यागकर देना चाहिये ।।१४॥
भूषिपुत्रकने' भी उक्त बात का समर्थन किया है कि 'लोकमें परस्त्रीसेवन करनेवाला मनुष्य धनराज्य होनेपर भी दरिद्र होजाता है और सदा अपकीर्तिको प्राप्त करता है ।। १॥
अब एककालमें प्राप्त हुए धर्म, अर्थ और काम पुरुषायों में से किसका अनुमान पूर्वमें करना चाहिये? इसका समाधान किया जाता है:
धर्मार्थकामानां युगपत्समवाये पूर्वः पर्षों गरीयान १ ..अर्थ:-एफकालमें कर्तव्यरूपसे प्राप्त हुए धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोंमें से पूर्वका पुरुणर्य ही श्रेष्ठ है।
मावार्थ:-नैतिक गृहस्थ पुरुषको सबसे प्रथम धर्म तत्परचान अर्थ और अन्तमें कामपुडवार्थका सेवन करना चाहिये ॥१५॥
भागरि विशम्ने लिखा है कि मनुष्यको दिनके तीन भागोंमेंसे एकमाग धर्मसाधनमें, एक भाग धनार्जनमें और एकमाग कामपुरुषार्थ में व्यतीत करना चाहिये ॥१॥ भब समयकी अपेक्षासे पुरुषार्थका अनुष्ठान बताते हैं
कामासात्वे पुनरर्थ एव ॥१६॥ अर्थः-समय (जीविकोपयोगी व्यापार भाविका फाल) का सहन न होनेसे दूसरे धर्म और १ सपा व ऋषिपुत्रक:परमारतो योऽत्र पुरुषः संप्रजापते । [बनायोऽपि दरिद्रः स्याम्फीति लमते सदा ॥] इस श्लोकका उत्तराई' संमतटोका पुस्तक में नहीं है अतः हमभे नवीन रचना करके उसकी पूर्ति की है। १ तथा म भागुरि:धर्मचिन्ता तृतीवाय दिवसस्य समाचरेत् । सतो विधाजने सावरमा कामाने तथा ॥१॥ १ मु.मू० पुस्तक में कालसहत्येपुनरर्थ एवं ऐसा पाठहैजिसका पः-धर्म और काम पूसरे धमयमें भी किये जासकते है, असल तीनोंमें अर्थ हो .