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* नीविवाक्यामृत
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अब अन्यमतोंकी अपेक्षासे गृहस्थोंके भेद कहते हैं:
वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽधोरो गृहस्था:' ॥२२॥ अर्थः-गृहस्थ चार प्रकार के हैं:-धैवाहिक, शालीन, जागापर गौर अघोर' ॥२२॥
जो गृहमें रहकर श्रद्धापूर्वक केवल गाईपत्य अग्निमें ही हवन करता है उसे 'वैवाहिक' समझना चाहिये ।।शा
जो पूजाके विना केवल अग्निहोत्र करता हुआ पांचों अग्नियोंकी पूजा करता है उसे 'शालीन' जानना चाहिये ॥२॥
जो एक अग्निकी प्रथषा पांचों अग्नियोंकी पूजा करनेमें तत्पर है और जो शुद्रको भनादि षस्तुको महण नहीं करता वह सात्विक प्रकृतियुक्त 'जायावर' है ।।३।।
जो दक्षिणा-दान-पूर्वक अग्निष्टोम आदि यज्ञ करता है वह सौम्यप्रकृतियुक्त और रूपवान 'अघोर' कहा गया है | अब परमतको अपेक्षा वानप्रस्थका लक्षण निर्देश करते है:
यः खलु यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहार ष परित्यज्य सकलत्रोऽकलंत्रो वा बने प्रतिष्ठते स वानप्रस्थः ॥२३॥
अर्थ:-जो शास्त्रकी आशाके अनुसार लौकिक आहार-नागरिक या मामीण पुरुषोंका पान भाविका तथा सांसारिक व्यवहार-गाय, भैस पुत्र और पौत्रादि-का त्याग करके स्त्रीसहित पा स्त्रीरदिए होकर धनको प्रस्थान करता है उसे वानप्रस्थ कहते हैं।
१ चक्क सूत्र न तो मु• मू. पुस्तकमें और न गवर्न लायरी पूनाको हस्तलिखित मनपतियों में है किन्तु मेरा से०टी० पुस्तकमें पाया जाता है।
सम्पादक:५ [नोट:-जेनसिद्धान्तमें उक्त गहस्योंके भेद नहीं पाये जाते परन्तु इस ग्रन्थमें प्राचार्यभीने जिसरकार इस स्थलोंमें अन्य नीतिकारों की मान्यताओका संकलन किया है उसीपकार यहां भी अन्यम्तोकी अपेक्षा हत्योंके मेद संकलन किये हैं। प्रयया उल सूत्र किसी भी मूलप्रतिमें न होने से ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रश्यका संका टीकाकर चैन विधान पा; इसलिये उसने अपने मसकी अपेक्षासे कुछ सूत्र अपनी करिसे रचकर मूलमन्यमें शामिल कर दिये है, अन्यथा यही प्राचार्यश्री यशस्तिलकमें गुस्पका लक्षण (शान्तियोषिति यो सातः सभ्यशानातियिप्रियः । स गास्यो मान्सून मनोदेवतसाधकः || ||) 'हमारूमस्त्रीमें प्रासत, सम्पन्शान और अतिथियों में अनुरागया और मितेनिय' न करते। ]
। देखो नीतियास्यामृत संस्कृत टीका •re |