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ॐ नीतिषाक्यामृत
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गुरु' विद्वानने भी कहा है कि 'संसारमें जिन देशों में राजा नहीं होते वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करते रहते हैं परन्तु जिनमें राजा मूर्ख होता है ये नष्ट होजाते हैं ॥१॥ अब युवराज होने के अयोग्य राजपुत्र का कथन करते हैं:
असंस्कार रत्नमिव सुजातमपि राजपुत्रं न नायकपदायामनन्ति साधवः ॥३६॥ ___ अर्थ:-जो राजपुत्र कुलीन होनेपर भी संस्कारों-नीतिशास्त्र का अध्ययन और सदाचार आदि सद्गुणों-से रहित है उसे राजनीति के विद्वान् शिष्टपुरुष संस्कारहीन-शाण पर न चढ़ाये हुए-रत्नके समान युवराज-पदपर आरूढ़ होने के योग्य नहीं मानते ।
सार्थ:-जिसपर समुः प्रादि उसन स्थासे उत्पन्न हुअाभी रत्न शाण पर धरणादि क्रियासंस्कार के विना भूषण के योग्य नहीं होता, उमीप्रकार राजपुत्रभी जबतक राजनीतिज्ञ बहुश्रुत शिष्ट पुरुषोंके द्वारा किये गये नैतिक ज्ञान और सदाचार आदि संस्कारों से सुसंस्कृत नहीं होता तबतक वह युवराजपदके अयोग्य समझा जाता है।
। निष्कर्षः-राजपुत्र को राजनैतिक ज्ञान और सदादाररूप संस्कारों से सुसंस्कृत होना चाहिये जिस से वह युवराजपदपर आरूढ़ होसके |३|| अब दुष्टराजा से होनेवाली प्रजाकी क्षति बताते हैं:
न दुर्विनीताद्राज्ञः प्रजानां विनाशादपरोऽस्त्युत्पातः' ॥४०॥ अर्थः- दुष्ट राजासे प्रजाका विनाश ही होता है, उसे छोड़कर दूसरा कोई उपद्रव नहीं होसकता |
भावार्यः-लोक में भूकम्प आदि से भी प्रज्ञाकी क्षति होती है परन्तु उससे भी अधिक क्षति दुष्ट राजा से हुश्रा करती है ।
___ हारीत विद्वान ने भी कहा है कि 'भूकम्पसे होनेवाला उपद्रव शान्तिको-पूजन, जप और हवन आदि-से शान्त होजाता है परन्तु दुष्ट राजासे उत्पन्न हुआ उपद्रव किसी प्रकार भी शान्त नहीं हो सकता था
१ तथा च गुरु:
अराजकानि राहाणि रक्षन्तीह परस्परं । मूखों राजा भवेद्य पां तानि गछन्तीद संक्षयं ॥ १ ॥ २ 'अकृतमस्कार' ऐसा मु० मू० पुस्तक में पान है परन्तु अर्थमद कुछ नहीं है। ३ न पुन बिनीतादाश: प्रजाविनाशायापरोऽस्युल्लाता'
इसप्रकार मु. और हस्तलि. मूलमतियों में पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ४ तथा च हारीत:
उत्यातो भूमिकम्पादः शान्तिकैयोति सौम्यतां । नृवस: उत्पातो म कथंचित् प्रशाम्यति ।। ।।।