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* नीतिवाक्यामृत
अर्थः- :- यह नैष्ठिक ब्रह्मचारी - श्रात्माके द्वारा आत्माको आत्मस्वरूपमें प्रत्यक्ष करता हुआ अत्यन्त विशुद्धिको प्राप्त करता है ॥ १८ ॥
नविन भी शिया है कि जिस नैष्ठिक ब्रह्मचारीको श्रात्माका प्रत्यक्ष होजाता है उसे समस्त प्रकार के ब्रह्मचर्य के फल स्वर्गादि प्राप्त होजाते हैं ।। १ ।। '
निष्कर्ष: नैष्ठिक ब्रह्मचारीका पद उच्च और श्रेयस्कारक है क्योंकि वह कामवासनासे विरक-जितेन्द्रिय, आत्मदर्शी और विशुद्ध होता है ॥ १८ ॥
अब गृहस्थका लक्षण निर्देश करते हैं :--
Shappa
नित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः ॥
१६ ॥
अर्थ :- जो व्यक्ति शास्त्रविहित निस्य अनुष्ठान - सत्कर्तव्य ( १ इज्या' - तीर्थकुर और महर्षियोंकी पूजाभक्ति, २ वार्ता' - न्यायवृत्तिसे असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन जीविकोपयोगी कार्योंको करना ३ दत्ति - दयादन्ति, पात्रवृत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति, ४ स्वाध्याय - निर्दोष शास्त्रोंका अध्ययन मनन आदि, ५ संयम' अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और तृष्णाका त्याग, इन प्रतोंका पालन करना तथा ६ तप अनशन आदि तपकरना) और नैमित्तिक अनुष्ठान (वीर जयन्ती आदि निमित्तको लेकर किये जानेवाले धार्मिक प्रभावना आदि सत्कार्य ) का पालन करता है उसे गृहस्थ कहा है ॥ १६ ॥
भार' विद्वान ने कहा कि 'जो मनुष्य उत्कृष्ट श्रद्धासे युक्त होकर नित्य और नैमित्तिक सत्कर्तव्यों का
१ तथा च नारवः
श्रात्मावलोकन यस्य जायते नैष्ठिकस्य च ।
ब्रह्माचर्याणि सर्वाणि यानि तेषांफलं भवेत् ॥१॥र
२ तथा चोकमा - कुलधर्मोऽय मिस्येषामई त्पूजा दिवन” पूज्य वार्ता च दत्ति व स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपाठ सूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥१॥ ३ वार्ता विशुद्धस्या स्यात् कुष्यादीनामनुष्ठिविः । निर्मर्षिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणमनि षोढ़ा स्युः प्रजानीवनहेतवे ॥१७३॥ पर्य १६ चतु वणितादतिर्द यापात्रसमन्यये ॥ ३ * 'स्वाध्याय: श्रुतभावमा'
६-७ ' तपोऽनशनवृत्यादि संयमो तर
इति श्रादिपुराणे भगवान् जिनसेनाचार्यः वर्ष ३८
८ तथा च भागुरि:
नित्यनैमित्तिकपरः श्रद्धया परया युतः गृहस्थः प्रोच्यते सद्भिरशृङ्गः पशुरम्यथा ॥१॥