________________
* नीतियाक्यामृत
नीतिकार वर्गने' कहा है कि जिसप्रकार लगाम के आकर्षण-पींचना आदि क्रियासे घे के वशमें कर लिये जाते हैं उसीप्रकार नीतिशास्त्रोंके अध्ययनसे मनुष्यकी चंचल इन्द्रियाँ वशमें होजाती हैं ।।१।। अब उक्त बात (नीतिशास्त्र के अध्ययनको ही इन्द्रियोंका जय कहना ) का समर्थन करते हैं:
कारणे कार्योपचारात् ॥१०॥ अर्थः–कारणमें कार्यका उपचार (मुख्यता न होने पर भी किसी प्रयोजन या निमित्तके वश वस्तुमें मुख्यकी कल्पना करना ) करनेसे नीतिशास्त्रके अध्ययनको ही 'इन्द्रियजय' कहा गया है।
भावार्थ:-जिसप्रकार चश्मेको ठमें सहायक-निमित्त होनेसे नेत्र माना जाता है उसीप्रकार नीतिशास्त्र के अध्ययनको भी इन्द्रियोंके जय-यश करनेमें निमित्त होनेसे 'इन्द्रियजय' माना गया है ।॥१०॥ अब कामके दोषोंका निरूपण करते हैं :
योऽनङ्गेनापि जीयतेल कार 'पुष्टाहारानी अा।।। अर्थः-जो व्यक्ति कामसे जीता जाता है—कामके वशीभूत हैं वह राज्य के अङ्गों-स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना आदिसे शक्तिशाली शत्रओं पर किसप्रकार विजय प्राप्त कर सकता है ? नहीं कर सकता।
___ भावार्थ:-क्योंकि जब वह अना (अङ्गहीनताके कारण निर्वल काम देव ) से ही हार गया तब अङ्गों-अमात्य आदि से बलिष्ठ शत्रुओंको कैसे जीत सकता है ? नहीं जीत सकता ॥१॥
नीविकार भागुरिने भी वक्त बातकी पुष्टि की है कि 'कामके वशीभूत राजाओं के राज्य के मन (स्वामी और अमात्य श्रादि ) निर्बल-कमजोर या दुष्ट-विरोध करनेवाले होते हैं; इमलिये उन्हें और उनकी कमजोर सेनाओंको बलिष्ठ अङ्गों (अमात्य और सेना आदि ) वाले रामा लोग मार डालते हैं ॥१॥ निष्कर्ष:-विजयलक्ष्मीके इच्छुक पुरुषको कदापि कामके वश नहीं होना चाहिये ॥११॥
-...-... -. ..-.---- १ तथा च वर्ग:
नीतिश त्राएयपोते यस्तस्य दुष्टाभि स्वान्यपि । वशगानि शनास्ति कशापाते हया यथा ॥३|| २ उक्त सूत्र सं० टीका पुस्तक में नहीं है किन्तु मु. म. पुस्तक से संकलन किया गया है। । मु० मू० पुस्तक में 'पुष्टानादन्' ऐसा पाट है जिसका अर्थ बलिष्ठ मनुष्य आदिको होता है। ४ तथा च भागुरिः
ये भूपाः काम सक्ता निमराज्याजदुर्वला:।। दृष्टानास्तान् पराइन्युः पुष्ट का दुर्बलानि च ॥१॥