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* नीतिवाक्यामृत ..........................................................................................................
तः पुत्रको माता पिता और गुरुजनोंकी आज्ञाको पालनेवाला, सदाचारी और वंशकी होना चाहिये ॥ ११ ॥ तारीका लक्षणनिर्देश करते हैं :
. कृतोद्वाहः ऋतुप्रदाता कुतुपदः ॥ १२ ॥ की विवादित होकर केवल मन्सान की प्रापिके लिये नुकाल-चतुर्थदिनमें स्नान करने के स्त्रीका उपभोग करता है उसे 'कृतुपद' ब्रह्मचारी कहते हैं ॥१॥ ने भी कहा है कि 'जो कामवासनाकी पूर्तिको छोड़कर केवल सन्तान प्राप्तिके लिये सेवन करता है वह उत्तमोत्तम और सब बासोंको जाननेवाला 'कृतुपद' ब्रह्मचारी है ।।१।। मापारी या पुरुष जिस प्रकारका होता है उसे बताते हैं :
अपुत्रः ब्रह्मचारी पितृणामृणभाजनम् ॥ १३ ॥ वैदिक ब्रह्मचारी-बालब्रह्मचारी को छोड़कर दूसरे ब्रह्मचारी पुत्रके बिना अपने पिताओं के
मा
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रम. प्रत्येक मनुष्य अपने माता पिताके अनन्त उपकारसे उपकून होता है। अतएष वह मा औषनपर्यन्त उनकी सेवा शुश्रूषा करता रहता है, तथापि उनके उपकारका बदला नहीं
पह उनके ऋणसे मुक्त नहीं होपाता। इसलिये उसके उस अत्यन्त प्रावश्यकीय जसका उत्तराधिकारी पुत्र पूरा करता है - उनकी पवित्र स्मृति के लिये दानपुण्य आदि यशस्य साभा अपने कुलको उज्वल बनाता है। अतः वह पुत्रयुक्त पुरुष अपने पैतृक ऋणसे छुटकारा इसके फलस्वरूप लोकमें उसकी चन्द्रनिर्मल कोर्तिकौमुदीका प्रसार होता है। परन्तु पुत्रशून्य सपकार न करने के कारण अपने पिताओंका ऋणी बना रहता है।
- सद्गृहस्थ पुरुषको पैतृक ऋणसे मुक्त होने एवं वंश और धर्मकी मर्यादाको अनुरण भाजयुक्त होना चाहिये ॥१३॥ मध्वयन न करनेवाले पुरुषको हानि बताते हैं :
अनध्ययनो अक्षणः ॥ १४ ॥ म.पु. में नही है, केवल से टी० पु. में है। .
स्लामाबम कामाय य: त्रिय कामयेटतो।
सर्वेषामुत्तमोत्तमसर्व वित् ॥1॥ मापितणामृगामाजनम्' ऐसा पाठ मु० मू० पुस्तक में है जिसका अर्थ यह है कि पुत्रशून्य पुरुष रितामा एबी दोसा है। [नोट:-यह पाठ संस्कृत टीका पुस्तक के पाठ से अच्छा प्रतीत होता है। -सम्पादका नायो प्रमाणाम्' इसप्रकार मु.पु. में पाठ है जिसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य शास्त्रोका अध्ययन मागणवरादि ऋषियोका ऋणी है।