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* नीतिवाक्यामृत के
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शात्र आत्माको पतनकी ओर लेजाता है। जिसप्रकार अग्नि ईधनको भस्म कर देती है उसीप्रकार को भी प्रत, तप, नियम और उपत्रास आदिसे उत्पन्न हुई प्रचुर पुण्यराशिको नष्ट करदेता है इसलिये जो महापुरुप इसके वशमें नहीं होते उनका पुख्य बढ़ता रहता है' ॥१॥
क्रोधो पुरुषके महीनों तक उपवास, सत्यभाषण, ध्यान, बाहरी जंगलका निवास, ब्रह्मचर्य गरण और गोचरीकृति आदि सब निष्फल हैं ॥२॥
जिसप्रकार खलिहानमें एकत्रित धान्यराशि अग्निकणके द्वारा जलावीजाती है उसीप्रकार नाना. प्रकारके प्रत, दया, नियम और उपवाससे संचित पुण्यराशिको क्रोध नष्ट कर देता है ॥३॥
अतएव जिसप्रकार कोई मनुष्य जिस समय दूसरोंके जलाने के लिये अग्निको अपने हाथमें धारण करता है उस समय सबसे पहले उसका हाथ जलता है उसीप्रकार यह क्रोधरूपी अग्नि जिसके उत्पन्न होती है उसकी आत्माके सम्यमान, सुख और शान्ति आदि सद्गुणोंको नष्ट करदेती है |
निष्कर्षः-अतः विवेकियों को क्रोध नहीं करना चाहिये ।।३।। श्रव लोभका लक्षणनिर्देश करते हैं:
___ दानाहेषु स्वधनाप्रदान परधनग्रहण या लोभः ॥ ४ ॥ अर्थ:-दानकरनेयोग्य धर्मपात्र और कार्यपात्र आदिको धन न देना तथा चोरी, छलकपट और विश्वासघात आदि अन्यायों से दूसरोंकी संपत्तिको प्रण (हड़प ) करना लोभ है ।।४।। १ पुण्य चितं व्रततपोनियमोपासैः । क्रोधः क्षणेन दहतीन्धनबधुताशः।। मलेति तस्य वशमेति न यो महात्मा। तस्याभिवृद्धिमुपयाति नरस्य पुर में था २ मासोपवासनिरतोऽस्तु तनोतु सत्यं । ध्यानं करोतु विदधात वहिनिवास ॥ ब्रझरतं घरतु भक्ष्यरतोऽस्तु नित्यं ।
रोष करोति यदि सर्वमनर्थक तत् ||२|| ३ दुःखार्जित खजगतं वक्षमीकृतं च । धान्य यया दहति बहिष्णः प्रविष्टः॥ नानाविधनतदयानियमोपयासः । रोषोऽर्जितं भयभृता पुश्पुरयराशिम् ॥३॥
सुभाषितरत्नसंदोहे अमितगत्याचार्यः । ४ दशेत् स्वमेव रोपाग्नि पर विषय ततः। कुष्यनिक्षिपति स्वाले वहिमन्यविषक्षय
क्षत्रचूडामणी वादीमसिहरिः। ५ 'दाना वधनाप्रदाममकारणं परवित्तमाणे या लोभः । पैसा म.मू. ३० में पाठ है परन्तु अभय कुछ नहीं।