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* नीतिवाक्यामृत से
हाल जिया है कि 'शिष्ठोंकी रक्षा करना और पापियो प्रजाकण्टको-अपराधियोंको सजा भावधर्म समझना चाहिये । इससे दूसरे कर्तव्य उसके लिये गौण कहे गये हैं ॥१॥ के नहीं होते उनका निरूपण करसे हैं:
न पुनः शिरोमुण्डन जटाधारणादिकम् ॥३॥ शरमाना और जटाओंका धारण करना आदि राजाका धर्म नहीं।
योकि राजाको प्रजापालनरूप सत्कर्तव्य के अनुष्ठानसे ही धर्म, अर्थ और काम इन तीनों होजाती है, अतएव उसे उस अवस्थामें शिरका मुण्डन आदि कर्तब्य नहीं करना
ने लिखा है कि प्रत नियम आदिका पालन करना राजाओंको सुखदायक नहीं है, तो प्रजाकी रक्षा और उसको पीड़ा पहुँचानेवालोंको नष्ट करना है ॥१॥ पण किया जाता है:
राशः पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्य ।।४।। का पृथ्वीको रक्षाके योग्य कर्म-पाइगुण्य (संधि, विप्रह, यान, मासन, संभय और राय कहते हैं। -राजालोग राज्यको श्रीवृद्धि के लिये दूसरे शत्रभूत राजाओंसे संधि-बलवान् शत्रको धनादि मित्रा करना, विग्रह-कमजोरसे लड़ाई करना, पान-शत्र पर पढ़ाई करना, भासन
ना, संभय-अात्मसमर्पण करना और धीमा-अलवामसे संधि और कमजोरसे शुरुषका यथोचित प्रयोग करते हैं, क्योंकि इन राजनैतिक सपायोंसे उनके राज्यकी भीवृद्धि
विषीकी रक्षा कारण उक्त पाइगुण्यके प्रयोगको राज्य कहा गया है ।। ४॥ मान्ने भी लिखा है कि 'काम विलास प्राविको छोड़कर पागुएय-संधि और विप्रहादि के ताराम कहा गया है ।।१।।
युद्ध
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थियो धर्मः शिष्टानां परिपालन । पालाचीनां गौग्योऽन्यः परिकीर्तितः |
को पो न भूपानां सुखावहः । प्रदानेन प्रजासंरक्षणेन च ॥३॥
माविक यसप्रकम्यते । लिसाधतेन वाम कयरन || सिनेम विलासकमानाः सदा । तस्य सामं सोऽडिरेण प्रणश्यति ॥ संशोधित'