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ॐ नीतियाक्यामृत *
'जो राजा कामासक्त होकर विषयों का लोलुपी हुआ उक्त पाइगुण्यका चितवन-समुचित प्रयोग नहीं करता उसका राज्य तथा वह शीघ्र नष्ट होजाता है ॥२॥' अब पुनः राज्य का लक्षण करते हैं:
वर्णाश्रमवती धान्यहिरण्यपशुकुप्यवृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी' ॥ ५॥ अर्थः-वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यतिसे युक्त तथा धान्य, सुवर्ण, पशु और ताँबा लोहा आदि धातुओंको प्रचुरमात्रामें देनेवाली पृथिवीको राज्य कहते हैं परन्तु जिसमें ये बातें न पाई जावें वह राज्य नहीं ।
. भावार्थः- केवल उक्तपाडगुण्य-संधि और विग्रह आदिके यथास्थान प्रयोगको ही राज्य नहीं कहा जासकता, किन्तु जिसके राज्यकी पृथ्वी वर्ण और श्राश्नमधर्मसे युक्त तथा धान्य और सुवर्ण आदि इष्टसामग्रीसे सम्पन्न हो उसे राज्य कहते हैं ||५||
भृगु' नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'जिस राजाकी पृथ्वी वर्ण और आश्रमोंसे युक्त एवं धान्य और सुवर्ण आदि द्वारा प्रजाजनोंके मनोरथोंको पूर्ण करने वाली हो उसे राज्य कहते हैं। अन्यथा जहाँ पर ये पीजें नहीं पाई जावें वह राज्य नहीं किन्नु दुःखमात्र ही हैं ॥ १ ॥ अब वर्णोका भेदपूर्षक लक्षण करते हैं:
. प्रामणक्षत्रियवैश्यशूदाश्च वर्णाः ॥ ६॥ मर्थः- वर्ण चार हैं:-~प्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।
विशदविवेचनः-भगवान् जिनसेनाचायने आदिपुराणमें लिखा है कि इतिहासके आदिकालमें भादि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेवने मनुष्य जातिमें तीन वर्ण-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र प्रकट किये थे और वे भागे कहे हुए क्षतत्राण---शस्त्रशक्तिसे प्रजाकी शत्रुओंसे रक्षाकरना आदि अपते २ गुणोंसे क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहलाते थे ।। १॥
, 'वर्णाश्रममती धान्य-हिरण्य-पशु कुम्य-विशिष्टफलदा च पृथिवी' ऐसा मु० मू: पु० में पाठ है परन्तु अर्थभेद कुछ
नहीं है। २ तथा च भृगुः-- वर्णाश्रमसमोऐता सर्वकामान् प्रयच्छति !
या भूमियते राज्यं प्रोक्ता सान्या निखम्बना ।। ३ 'ब्राह्मण : क्षत्रिया विशः शूदाश्च व:' ऐसा पाठ मु. मू० पुस्तक में है ३रन्तु अर्थभेद कुछ नहीं है। ४ उत्पादितास्त्रयो तस्तदा तेनादिवेधसा ।
क्षत्रिया परिणजः शूद्राः तत्राणादिभि पैः ।।१।।