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* नीतिषाक्यामृत १
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नने लिखा है कि 'जश्न धनाढ्य पुरुष तृष्णाके वशीभूत होकर दूसरोंके धनको ग्रहण करता है एवं दान करनेयोग्य पात्रोंको दान नहीं देखा उसे लोम का
पुरभिनिवेशामोक्षो यथोक्ताग्रहणं वा मानः ॥ ५ ॥ मार्गदर्शक : विश्व भतिकीम छोना-पापकार्यो प्रवृत्ति करना नथा आप्त-हितैषी पुरुषों
को न मानना इसे मान कहते हैं ॥५॥
ने कहा है कि पाप कार्योंका न छोड़ना और कहीहुई योग्य वातको न मानना उसे सि प्रकार दुर्योधनका मान प्रसिद्ध है अर्थात् उसने पाण्डवोंका न्याय प्राप्त राज्य न देकर
और विदुरजी आदि प्राप्त पुरुषोंसे कही हुई बातकी उपेक्षा की थी॥१॥ बार करते हैं:मालेश्वर्यरूपविद्यादिभिरात्माहकारकरणं परप्रकर्षनिबन्धन वा मदः ॥ ६ ॥
अपने कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप और विद्या प्रादिके द्वारा अहंकार (मद ) करना, मथवा गतीको रोकना, उसे मद कहते हैं ।। ६॥ नामके विद्वान्ने लिखा है कि 'अपने फुल, वीय, रूप, धन और विद्यासे जो गर्व किया सरोंको नीचा दिखाया जाता है उसे मद कहते हैं ॥१॥ या किया जाता है:सामन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्यार्थसंचयेन वा मनःप्रतिरज्जनो हर्षः ॥ ७॥
दवा प्रयोजन दूसरोंको कष्ट पहुँचाकर मन प्रसन्न होना या इष्ट बस्नु-धनादि की प्राप्ति मारक प्रसन्नताका होना हर्ष है।
सं यत्तु तदनाक्यः समाचरेत् । वादानं स लोभ परकीर्तितः ॥१॥
संशोधित दिगो युक्तपरिवर्जनम्। लामिान स्यापथा दुर्योधनस्य च ॥१॥
सायों गर्यो शानमम्भवः । रोच्यतेऽन्यस्य येन था कर्षण भषेत् ॥१॥