________________
* नीतियाक्यामृत *
(२) अर्थसमुदेशः । समय के प्रारम्भ में अर्थ-धन का लक्षण करते हैं:
यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ॥ १ ॥ जिससे मनुष्यों के सभी प्रयोजन-लौकिक और पारलौकिक सुख प्रादि कार्य सिद्ध हों उसे
..
माद
-उदार नररत्न का धन ही वास्तविक धन है, क्योंकि उससे उसके समस्त प्रयोजन-काये पान्तु कपणोंके द्वारा जमीनमें गाड़ा हुआ धन वास्तधिक धन नहीं कहा जासकता; क्योंकि यह
और पारलोकिक सुखरूप प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर सकता ॥१॥ देष' नामके विद्वान कहा है कि यदि गृह मध्य में गाढ़े हुए धनये ऋषणों को धनिक कहा का असके उसी धनमे हमलोग ( निधन ) धनिक क्यों नहीं होसकते ? अश्य होसकते हैं ॥१॥
मध्यम वर्तमान कृपणों द्वारा सुरक्षित धन न तो धार्मिक सत्कार्य ( पावदान ) में उपयोग और न सांसारिक भोगोपभोगमें । अन्तमें उसे चोर और राजा लोग स्वाजाते हैं ।। २॥'
STARE
रोहिक एवं पारलौकिक सुखकी प्राप्तिके लिये--अर्थ-धन अनूठा साधन है । विवेकी और इससे दानपुण्यादिधर्म, सांसारिकसुख और स्वर्गश्रीको प्राप्त कर सकता है। परन्तु दरिद्र विमा अपनी प्राणयात्रा-प्राणरक्षा ही नहीं कर सकता, पुनः दानपुण्यादि करना तो
क्योंकि जिस प्रकार पहाइसे नदियाँ निकलती है उसीप्रकार धनसे धर्म उत्पन्नहोता है। मन मनुष्य स्थूलकाय (मोटा-ताजा) होनेपर भी दुर्वल, और धनाहन शकाय-कमजोर माविष्ट समझा जाता है । ममार, जिसके पास धन है उसे लोग कुलीन, पण्डित, शास्त्रा, मालपता और मनोन मानते हैं, इसलिये शास्त्रकारों ने जीविकोपयोगी माधनों द्वारा न्यायसे
का उपदेश दिया है। मी समन्तभद्राचार्यने कहा है कि इतिहास के आदिकाल में जब प्रजाकी जीवनरक्षाके साधन मप्राय होचुके थे उस समय प्रजा की प्राणरक्षाके इच्छुक प्रजापति भगवान् ऋषभदेव तीर्थंकर ने मात उसे खेती और व्यापार आदि जाविकोपयोगी साधनोंमें प्रेरित किया था।
- कमलभदेवेनः
सध्यनिखातेन धनेन धनिनो यदि । भवामः किन तेनैव धनेन धनिनो वयम् ॥१॥
न धर्मस्य कृते प्रयुज्यत यन्न कामस्य च भूमिमध्यगम् । imia करपरिरक्षितं धनं चौरपार्थिवाहेषु भुज्यते ॥ २ ॥ गरतिषः प्रथम जिजीविषुः शशास त्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।
पृरत्स्वयंभूस्तोत्रे स्वामी समन्तभद्राचार्यः ।
-.-.............. ... .
.-
. .--..-..-......
-..
.
-
-
..
.
. -
--