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ॐ नीतिवाक्यामृत *
कि 'जिसके (अपनी सती स्त्रीके) उपभोगसे समस्त इन्द्रियों में अनुराग ना चाहिये, इसके विपरीत प्रवृत्ति-परस्त्री और वेश्यासेवन आदि कुचेष्टा
को मष्ट किये बिना ही स्त्रीका सेवन करता है उसकी वह कामक्रीड़ा अमानी चाहिये ।।२।। नियोंको सन्ताप उत्पन्न करनेवाला कामसेवन करते हैं उनका यह कार्य अन्धे
के सामने गीतगाने के समान व्यर्थ है ॥३॥' धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः' मुवी स्यात् ॥२॥ यक्ति धर्म और अर्थकी अनुकूलतापूर्मक-सुरक्षा करता हुआ कामसेवन करे बया नहीं ॥१॥ जिनसे धार्मिक और वैश्यासेपनस मानिक-धनको क्षति होती है अतः उनका ली में ही सतोप करमा चाहिये तभी मुम्य मिल सकता है |
त बावकी पुष्टि करता है कि जो मनुःय परस्त्री और वेश्यासेवनका त्याग ष-धार्मिक शति और धनका नाश नहीं हातः वथा सुख मिलता है ।।।।' सेवन करने की विधि बताते हैं:
समं वा त्रिवर्ग संवेत ॥३॥ तिक व्यक्ति धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोको समयका समान विभाग
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... मासान् यस्याः सेवनेन च ।
को यत्तदम्पद्विचेष्टितम || बासायं यः कश्चित् सेवते स्त्रियं ।
में नररूपस्य मोहनं ।।
न मोरन क्रियते जनः । मी नावं सुगौत सपिरस्य च ॥३॥
स्था' इस प्रकार मु मू• पुस्तक में पाठ है परन्तु अर्थ भेद कुछ नहीं है ।
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पशु वैश्यां चैव सदा नरः । में रोष मुखिनो न पनन्नयः ।।