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* नीतिवाक्यामृत
हवाला, धर्म और काम से और कामासक्त धर्म और धन से पराङ्मुख रहता है | अतएव केवल एक पुरुषार्थ ही अत्यन्त आसक्ति सेवन नहीं करना चाहिये ।
विमने लिखा है कि जिनकी चित्तवृतियाँ धार्मिक अनुष्ठानोंमें सदा लगी हुई हैं के विशेष विरत रहते हैं; क्योंकि धनसंचय करने में पाप लगता है ||१||
-नैतिक व्यक्तिको वास्तविक सुखकी प्राप्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोंमें से केवल नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनेसे वह अन्य पुरुषार्थोके मधुर फलोंसे वंचित रह
धन कमानेवालेका कथन करते हैं :
परार्थ भावानि इवात्मसुखं निरुन्धानस्य धनोपार्जनम् ||५||
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जो मनुष्य अपने सुखको छोड़कर अश्यन्त कष्टों को सहकर धनसंचय करता है वह दूसरोंके
मनुष्य या पशुaी तरह केवल दुःखी ही रहता है। अर्थात् जिसप्रकार कोई मनुष्य या कार-धाम्यादि षोकको धारण कर लेजाता है किन्तु उसे कोई लाभ नहीं होता; क्योंकि वह (उपयोग ( भक्षण आदि) में नहीं लाता, उसीप्रकार अनेक कष्ट्रोंको सहन करके धन कमाने भी दूसरोंके लिये कष्ट सहता है परन्तु उस सम्पत्तिका स्वयं उपभोग नहीं करता, अशरद नहीं होता।
मामके विद्वान ने लिखा है कि 'अत्यन्त कष्टों को सहकर धर्मको उल्लंघन करके एवं शत्रुओंको सम्पति संजय की जाती है। हे आत्मन् ! इसप्रकार की अन्याय और कपटसे कमाई चिको संचय करनेमें अपने मनकी प्रवृत्ति मत करो || १ || १
की सार्थकता बताते है:
इन्द्रियमनः प्रसादनफला हि विभूतयः ॥ ६ ॥
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इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, प्राण, बहु और श्रोत्र ) तथा मनको प्रसन्न करना-यही सम्पत्तियोंका फल है। अर्थात् जिस सम्पत्तिसे धनिक व्यक्तियों की सभी इन्द्रियों और
-सुख उत्पन्न हो वही सम्पत्ति है।
क्याच इ.पतिः
मन कामे स्वात्सुविरागता । अचापि विशेषेध पत्रः समादधर्मः ॥१
१ तथा च व्यासः ----
प्रतिक्लेशेन ये पाय धर्मस्यातिक्रमेण च । शांतिनमात्मन् तेषु मनः कृथाः ||१||
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