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* नीतिवाक्यामृत *
अथ लोभी के धन की अवस्था बताते हैं :
कदर्यस्यार्थसंग्रहो राजदायादतस्कराणामन्यतमस्य निधिः ॥११॥ अर्थ :-लोभीका संचित धन राजा, कुटुम्बी और पोर इनमें से किसी एक का है। भावार्थ :--सोमो के धन को अवसर पाकर राजा, अतुम्धी या घोर अपहरण कर लेते हैं। निष्कर्ष :-अतएव लोभ करना उचित नहीं ॥१२॥
बल्लमदेव' नामके विद्वाम्ने लिखा है कि पात्रों को दान देना, उपभोग करना और नाश होना इस प्रकार धनकी सीन गति होती हैं। जो व्यक्ति न तो पात्रदान में धनका उपयोग करता है और न स्ययं तथा फुटुम्बके भरण पोषणमें खर्च करता है उसके धन की तीसरी गति ( नाश ) निश्चित है अर्थात् उसका धन नष्ट होजाता है |शा' निष्कर्ष :-इसलिये नैतिक व्यक्तिको धनका लोभ कदापि नहीं करना चाहिये ॥११॥
इति अर्धसमुद्देश: समाप्तः ।
(३) कामसमुद्देशः। अय कामसमुद्देश के प्रारम्भमें काम का लक्षण करते हैं :---
- प्राभिमानिकरसानुविद्धा यतः सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः ॥१॥
अर्थ:-जिससे समस्त इन्द्रियों-(सर्शन, रसना, प्राण, बक्षु, श्रोत्र और मन) में बाधारहित प्रीति उत्पन्न होती है उसे काम कहते हैं।
सदाहरण:-कामी पुरुष को अपनी स्त्री के मधुर शब्द सुननेसे श्रोबेन्द्रिय में, मनोज्ञेहपका अवलोकन करनेसे चक्षुरिन्द्रिय में, और सुकोमल अङ्गके स्पर्शसे स्पर्शनेन्द्रियमें बाधारहित प्रीति-(आझाद) अत्पन्न होती है इत्यादि । अतः समस्त इन्द्रियों में बाधारहित प्रीतिका उत्पादक होनेसे स्वस्त्री सम्बन्ध को कामपुरुषार्थ कहा है।
निष्कर्षः-परस्त्रीसेवन से धर्मका तथा बेश्यासेवन से धर्म और धनका नाश होता है। अत: वह कामपुरुषार्थ नहीं कहा जासकता। अतः नैतिक पुरुष को उक्त दोनों अनर्थों को छोड़कर कुलीन संतानकी उत्पत्तिके पापर्श से स्वस्त्रीमें सन्तुष्ट रहना चाहिये ।।
१ तथा च बल्लभदेव :-- दाने भोगो नारातिलो गतयो भवन्ति रितस्य । यो न ददाति नक्तं तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥१॥