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मार्गदेश
* नीतिवाक्यामृत
करते हैं:
यः पितृपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः ||८||
व्यक्ति अपने पिता और पितामह ( पिताके पिता ) की सम्पत्ति को अन्याय ( जुवा (आदि) से भक्षण करता है—खर्च करता है और नवीन धन बिल्कुल नहीं कमाता उसे
गुरू' ने कहा है कि 'जो व्यक्ति पैतृक सम्पत्तिको त कीड़न ( जुना खेलना ) और सम्यायोंमें अध्यय करना है और नवीन धंन बिल्कुल नहीं कमाता वह निश्वयसे
का लक्षणनिर्देश करते हैं :
यो
हार्थं चिनोति स कदर्यः ||६||
पति सेवकों तथा अपने को कष्ट पहुँचाकर धनका संचय करता है उसे कदर्य - लोभी
जिसके पास बहुतसी सम्पत्ति है परन्तु वह न तो स्वयं उसका उपभोग करता है और कुछ देता है किन्तु जमीन में गाड़ देता है उसे 'कदर्य' कहते हैं, उसके पास भी धन क्योंकि अवसर पड़ने पर राजा वा चोर उसके धनको अपहरण --- ( डीन लेना) कर पश्चाताप करके रह जाता है ॥६॥
और मूलहरको होनेवाली हानि बताते हैं :
:--
तादात्विकमूलहरयोरायत्यां नास्ति कल्याणम् ॥१०॥
-वादाश्विक और मूलहर मनुष्यों का भविष्य में कल्याण नहीं होता ।
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- वादात्यिक (अपनी आमदनीसे अधिक धनका अपव्यय करनेवाला ) एवं मूलहर को अन्याय मार्ग में बर्बाद करनेवाला ) ये दोनों सदा दरिद्र रहते हैं इसलिये आपत्ति से नहीं कर सकते श्रतः सदा दुःखी रहते हैं ||१०||
गुरु:
पुत्र नामके विद्वान्ते लिखा है कि 'जो आमदनी से अधिक खर्च करता है एवं पूर्वजों के कमाये मण करता है और नयाधन बिल्कुल नहीं कमाता वह दुःखी रहता है ||१||
साममन्यायेनानुभवति स मूलहर:' ऐसा पाठ मु० म० पु० में है परन्तु भेद कुछ नहीं है।
विस व्यसनैर्यस्तु भक्षयेत् ।
किंचित् स दरिद्रो भवेद् नम् ॥१॥
करिपुत्रः
कुर्यायो व्ययं पश्च भक्षति । मान्यदर्जयेच्च स सीदति ||१||