________________
* नीतिवाक्यामृत श्री
४५
-विक म्यक्ति को उक्त अप्राप्तधनकी प्राप्ति, प्रातकीरक्षा और तितकीवृद्धि करने में
मा बाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे वह उत्तरकालमें सुखी रहता है ॥ ३ ॥ अपमान धनको प्राप्त करनेके विषयमें नीतिकार हारीसने' कहा है कि 'जिसके पास कार्यकी
काला धन विधमान है उसे इस लोकमें कोई वस्तु अप्राप्य नहीं है-उसे सभी इच्छित सकती है, इसलिये मनुष्यको साम, दान, दंड और भेदरूप उपायोंसे धन कमाना
रसा विषयमें व्यास' नामके विद्वान् ने कहा है कि 'जिसप्रकार पानीमें रहनेवाला
मादि जलजन्तुओंसे, जमीन पर पड़ा हुआ शेर वगैरह हिंसक जन्तुओंसे और मेषामा पत्तियों द्वारा खालिया जाता है उसीप्रकार धन भी मनुष्यों ( चोरों आदि द्वारा)
लिया जाता है ।।२।। पनि लिवक्षनामी दि के वियों गर्म पिता का है कि 'धनान्य पुरुषको धनकी वृद्धि करनेके से सदा पाज पर देदेना चाहिये, इससे वह बढ़ता रहता है अन्यथा नष्ट होजाता है ।। ३।। न के नाराका कारण बताते हैं:--
तीर्थमर्थेनासंभावयन् मधुच्छत्रमिव सर्वात्मना विनश्यति ॥ ४ ॥ जो लोभी पुरुष अपने धनसे तीर्थो-पात्रोंका सत्कार नहीं करता-उन्हें दान नहीं देता उसका
के समान बिल्कुल न होजाता है । जिसप्रकार शहदकी मक्खियाँ चिरकाल तक पुष्पोंसे ला करती है और भौरोंको नहीं खाने देती, इसलिए उनका राहद भीललोग छत्तको तोड़कर ले
सीप्रकार लोभीके धनको भी पोर और राजा वगैरह छीन लेते हैं। गर्ग नामके विद्वाम्ने लिखा है कि 'जो कृपण-लोभी अपना धन पात्रों के लिये नहीं देता वह उसी साल गजामों और पौरोंके द्वारा मार दिया जाता है ।। १ ।। ..... ... .. -------
- यतो शागतेनः--
नास्ति लोकेऽष यस्यार्य साधन परम् । PAHEOदिमिमायश्च तस्मादर्थमुपाजयेत् ॥ १॥
पापम्यासः
रामि यो मस्येच्यते श्वापदै नि । ___ भारी पविभिश्चैव तपार्थोऽपि च मानः ॥ २॥
कर तो गर्गेण:से परिवातव्यः सदापों पनिकेन च । बता सहिमावाति तं विना क्षयमेव च ॥ ३ ॥ यावर्ग:योन यति पात्रेभ्यः स्वधनं कृपणो जनः । तेने पालैश्चराये वो हन्यते ॥ ॥