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में नीतिवाक्यामृत
भविष्यमै धान्य मिलती रहती है उमीप्रकार तुम्म भी मुखके माधन धार्मिक अनुष्ठानों को करन हुए न्याय प्राप्त भोगोंको भोगो; गेमा न करने पर तुम अज्ञानी समझे जाओगे ! अब वियेकी पुरुषोंको धर्मानुमान में स्वयं प्रवृत्ति करनका निरूपण करते हैं :
कः सुधीभैपजमिवात्महितं धर्म परोपराधादनु निष्ठति ॥३६॥
अर्थ :-कौन बुद्धिमान् पुरुष श्रीपधिके समान अपनी आत्माका कल्याणकानयाले धमका पालन दूमरोंके आग्रहसे करेगा ? नहीं करेगा।
___ भावार्थ :-जिसप्रकार बीमार पुरुष जब औषधिका सेवन स्वयं कग्ना है तभी निरोगी होता है उमीप्रकार बुद्धिमान पुस्पको दुःखोंकी निवृत्ति के लिये स्वयं धर्मानुष्ठान करना चाहिये। क्योंकि दमक आप्रहसे धर्मानुष्ठान करनेवाला श्रद्वाहीन होनेसे मुख प्राप्त नहीं कर सकता ।।३६॥
नीतिकार भागुरिन लिया है कि जो मनुष्य दृसरोक अाग्रहम अौषधि और धमका सेवन करता है उसे कमशः आरोग्य लाभ और स्वगके मुग्य प्राप्त नहीं होने ।।१।। अब धर्मानुष्ठान करते समय जो बात होती है उन धनान हैं :
धर्मानुष्ठाने भवत्यप्रार्थितमपि प्रातिलोम्य लोकस्य ॥३७|| अर्थ :-धर्मानुष्ठान करते समय मनुष्यों को अनिच्छित (बिना बाहे) विघ्न उपस्थित हो जाने है ।।३।।
नीतिकार वर्गने कहा है कि 'कल्याणकारक कार्यों में महापुरुषांशो भी विश्न उपस्थित होने ।। परन्तु पापोंमें प्रयुस हुए पुरुषोंके बिन्न न होजाते हैं । अब पापमें प्रवृत्त हुए पुरुषका कथन करते हैं :
अधर्मकर्मणि को नाम नापाध्यायः पुरश्चारी या ||३||
अर्थ :-पापकार्यमें प्रवृत्ति करनेवालेको कौन उपदेश देनेवाला अश्या अनेमर -अगुश्रानो होता ? सभी होते हैं ॥३८॥
भावार्थ :--लोकमें सभी लोग पापियों को पापकरने की प्रेरणा करते हैं और मैंने अमुक पापकार | किया है तुम भी करो ऐसा कहकर अग्रेसर होजाने हैं।
निष्कर्ष:-नैतिक मनुष्यको किसीके बहकानेमें आकर पापकार्यो प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये ॥३॥
। तथा च भागुरि :
परोपरोधतो धर्म भेषजं च करोति यः ।
श्रारोग्यं स्वर्गगामिन न तान्या संप्रजायते ॥३॥ ६ नशा च वर्ग :---
श्रेयामि बहुविनानि भवन्ति मनामी । अश्रेयसि प्रवृत्तान' यानि वाम विलीनन। ||२||