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* नीतिवाक्यामृत *
सृष्टि-कोई राजा, कोई रक्त, कोई विद्वान और कोई मून्य आदि उनके पूर्वजन्ममें किये हुए पुण्य और पापकर्मके अधीन है। क्योंकि जिन कार्याम बिांचनता-भिन्नता होनीवभिन्न कारणा देखे जाते हैं। जैसे शाल्यमादिरूप विचित्रकायांक उत्पादक अतक प्रकार शालिवीजादिक उपलब्ध है। अर्थात शाल्यकर-धान्याकुकर के उत्पादक शालिबीज-धान्यत्रीज और गेट अंकोंके मादक गह बीज लोकमें उपलब्ध हैं उसीप्रकार सुखरूपष्टिका कारण प्राणियों परयकर्म और दाम्वरूप मएिका कारण पापकर्म युक्तिसिद्ध है; क्योंकि इसमें किसी भी प्रमाणामे बाधा नहीं आनी; क्योंकि कारणको एक मानने नकारनालाल दामना ।
निष्कर्ष :-मुग्धसामग्री द्वारा उत्कप चाहनवाले ग्रामीको सदा नैनिक और धार्मिक मस्कर्तव्यों का अनुशन करना चाहिये ।। अब धर्माधिष्ठाता-भाग्यशानी का माहात्म्य वर्णन करने है :
किमपि हि तद्वन्तु नास्ति यत्र नैश्वर्यमदृष्टाधिष्टातुः ।। ५० || अर्थ:-निश्चयसे संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे भाग्यशाली मात्र न कर सकता है।
भावार्थ:--भाग्यवान धार्मिक व्यक्ति को मनारमें सभी अभिलपित बार-(धनादि वैभव विद्वाना शादि) प्राप्त होती है ।। ५ ॥
भृगु' नामका विद्वान् लिखता है कि जिन प्राणीका कोई रक्षक नहीं है उमकी देंध-प्वजन्मकन पुण्य रक्षा करता है । परन्तु जिसका भाग्य फूट गया है-जिसका प्रायुकर्म बाकी नहीं है यह मुक्षित ( अन् । तरह रक्षा किया गया) होने पर भी नष्ट होजाता है। उदाहरण-अनाथ प्राणी भी भाग्यके अनुकूल होनेपर वनमें छोड़ दिया जानेपर भी जीवित रहता है परन्तु जिसका भान्य प्रतिकूल है उसकी गृहमें । अनेक उपायों द्वारा रक्षा की जाने पर भी जीवित नहीं रहता ।। १ ।।'
शास्त्रकारोंने लिखा है कि 'जिम मनुष्य के पूर्व जन्ममें किये हुए प्रचुर पुण्य का उदय है-भाग्यशाली
, तथा च भृगुः
अरक्षितं तिति देवरक्षित। सुरक्षितं देवनं विनश्यति ।। जीवस्यनायोऽपि वने विसर्जिनः। कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न जीवति ||१|| २ तथा च भर्नु परि:
भीमं धनं भवति तस्य पुरं प्रधानं । सोंजनः मुजननाम्ययाति तस्य ।। कृला च भूभवति सनिधिगलपूर्ण। यस्मास्ति पूर्वसुकृतं विगुल नरस्य ।