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* नीतियाझ्यामृत *
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नीतिकार भागुरिने' लिखा है कि 'जो उद्योगी पुरुष सदा अपने खजानेकी वृद्धि कराता रहता है उमका खजाना-धनराशि सुवर्णके नित्य संचयसे सुमेरुकी तरह अनन्त-अपरिमित होजाता है ।।१।। अव धर्म, विद्या और धनकी दैनिक घृद्धि करनेसे होनेवाला लाभ घताते हैं :
___धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं लवोऽपि संगृह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिकः ॥३२॥
अर्थः-धर्म, विद्या और धनका प्रतिदिन थोड़ा २ भी संग्रह करनेसे समय पाकर ये समुद्रसे भी अधिक होजाते हैं ॥३॥
नीतिकार वर्ग भी उक्त मातकी पुष्टि करता है कि "जो व्यक्ति सहा धर्म, विद्या और धनका संग्रह करता रहता है उमकी वे सब वस्तुएँ पूर्वमें अल्प होने पर भी समय पाकर समुद्र के समान अनन्त होजाती हैं ॥॥ अब धर्मपालनमें उदोगशून्य पुरुषोंको संकेत करते हुए कहते हैं :
धर्माय नित्यमनाश्रयमाणानामात्मवंचन भवति ॥३२॥ अर्थः-जो व्यक्ति धर्मका आचरण नहीं करते वे अपनी प्रात्माको ठगते हैं।
वशिष्ठने कहा है कि जिसने मनुष्यजीयन प्राप्त करके धर्मका आश्रय नहीं लिया, उसने अपनी आत्माको नरकका पात्र बनाकर बड़ा धोखा दिया' ||१|| विशदविवेचन :--
शास्त्रकारोंने कहा है कि जिस प्रकार सुगन्धिसे शुन्य पुष्प, दांतोंसे रहित मुख और सत्यसे शून्य तथा च भागुरि :नित्यं कोपविदि यः कारयेद्यममास्थितः।
अनन्तता भवेतस्य मेरो नो यथा तथा ॥१॥ २ तथा च वर्म:
उपार्जयति यो नित्यं धर्मश्रुतधनानि च |
सुरलोकान्यायनन्तानि तानि स्युर्जलधिर्यय। ३ मु० मू० पु० में-"धर्माय निरयमजाप्रतामात्मपश्चनम्" ऐसा पाठ है, अर्थ भेद कुछ नहीं है। ४ तथा च पशिष्ठ :
मनुष्यत्वं समासाद्य यो न धर्म समाश्रयेत् ।
श्रारमा प्रयंचितस्तेन नरकाय निरूपितः ॥३॥ २उतच:
गन्धेन हीन कुसुम न भाति, दंतेन होनं वदन न भाति । सत्येन हीनं वचनं न भाति, पुण्येन हीनः पुरुषो न भाति ||१|| साल स्वर्गसदां हिनत्ति समिधे चूचोय चिन्तामणि । चन्दौ प्रक्षिपति क्षिणोति तर सीमेकस्य शलोकते ॥ दत्त देवगवीं स गर्दभवधूमाहाय गोगई। यः संसारसुखाय सूभितशिवं धर्म मानुज्झति ॥२॥
फस्नूरी प्रकरण से।