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% नीतिवाक्यामृत ६
- सीनियर नारदने' भी लिखा है कि 'जो अपने सिद्धान्त के माहात्म्यको नष्ट न करना हो-उनकी ...ा हो, पूर्वापरके विरोधसे रहित हो ऐसे श्रागमकी शिष्ट पुरुप प्रशंसा करते हैं ।।१।।
विमानोंका विवरण करते हैं :स्तिस्नानमिव सर्वमनुष्ठानमनियमितेन्द्रियमनोवृत्तीनाम् ॥२६॥
-रिकी हनियाँ सजा का में नहीं है उनके समस्त सत्कार्य-दान, जप, तप और लानि हामीके स्नानकी तरह निष्कल हैं। जिसप्रकार हाथी स्नान करके पुनः अपने शरीर पर धूलि पीना प्रतएव उसका स्नान करना व्यर्थ है उनीप्रकार जो मनुष्य जितेन्द्रिय नहीं हैं उनके समस्त
म क्योंकि वे चंचलचित्तके कारण पुनः कुकार्योके गर्तमें गिर जाते हैं ।।२६| B :-शास्त्रकार लिखते हैं कि जो व्यक्ति इन्द्रियोंको वशमें किये बिना ही शुभध्यान
करनेकी लालसा रस्यता है वह मूर्ख अग्निके बिना जलाये ही रसोई बनाना चाहता है। नावा भुजाओंके द्वारा ही अगाध समुद्रको पार करना चाहता है एवं खेतोंमें बीजोंके बिना मायकी उत्पत्ति करना चाहता है।
न विसप्रकार अग्नि आदिके बिना रसोई श्रादिका पाक नहीं होसकता जसीप्रकार इन्द्रियोंको मा धर्मध्यान नहीं होसकता ॥१॥
कोई भी मनुष्य मानसिफ शुद्धिके बिना समस्त धार्मिक क्रियाएं करता हुआ भी मुक्ति नाम नहीं कर सकता। मला पुरुष अपने हाथमें शोशेको धारण करता हुआ भी क्या उससे अपनी आकृतिको जान
मही जान सकता ॥२॥ मोतिकार सौनकने कहा है कि 'अशुख इन्द्रिय और 'दु-चित्तवाला पुरुष जो कुछ भी सत्कार्य बार वह सब हाथीके स्नानकी तरह निष्फल है ॥१॥ जो शानदार होकरके भी शुभ कार्य में प्रवृत्त नहीं होता उसका विवरण करते हैं :
- दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयमनाचरतः ॥२७॥ अर्थः-जो अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता विद्वान् होकरके भी शास्त्रविहित सदाचार-अहिंसा और सत्यभाषण भादिमें प्रवृत्ति नहीं करता, उसका प्रचुरज्ञान विधवा स्त्रीके आभूषण धारण करनेके समान
रीरिक क्लेशको उत्पन्न करनेवाला-व्यर्थ है। If तथा प नारद :
स्वदर्शनस्य मादाय यो न हन्यात् स नागमः । पूर्वापा विरोधश्च शस्यते स च साधुभिः शा २ देखो कस्तूरीप्रकरणका इन्द्रिय और मनोद्वार ।
सौनक :अशुद्धन्द्रियचित्तो यः कुरुते कांचित् सक्रिया। हरितलानमिय व्यर्थ तस्य सा परिकीर्तिता ॥३॥
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