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* नीतिवाक्यामृत
अब आगम - शास्त्रका माहात्म्य बताते हैं :
विधिनिषेधा वैतिह्यायौ ॥२४॥
अर्थ :- विधि— कर्तव्यमें प्रवृत्ति और निषेध - अकर्तव्यसे निवृत्ति ये दोनों मत्यार्थं आगम ( शास्त्र ) के अधीन हैं अर्थात् यथार्थवक्ता कहे हुए आगममें जिन कर्त्तव्यों के करनेका विधान बताया विवेकी मनुष्यको उनमें प्रवृत्ति करनी चाहिये और उक्त आगम में जिनके करनेका निषेध किया गया है। उन्हें त्यागना चाहिये ।
भावार्थ:- श्रेयस्कर कर्त्तव्यमें प्रवृत्ति एवं ऐहिक और पारलौकिक दुःख देनेवाले अकर्तव्यों मे निवृत्तिका निर्णय आगम ही कर सकता है; जन साधारण नहीं ||२४||
भागुरि विद्वान्ने' कहा है कि 'शास्त्रविहित कर्तव्यपालन करनेसे प्राणीका अत्यन्त कल्याण होता है परन्तु शास्त्रनिषि कार्य भस्म में हवन करने के समान निष्फल होते हैं ॥१॥
जो मनुष्य पूर्व में किसी वस्तुको छोड़ देता है और पुनः उसे सेवन करने लगता है वह भूटा और पापी है ||२||
अब सत्यार्थ आगम-शास्त्रका निर्णय करते हैं :
तत्खलु सद्भिः श्रद्धेयमतिद्य यत्र न * प्रमाणबाधा पूर्वापरविरोधो वा ॥ २५ ॥
अर्थ :- जिसमें किसी भी प्रमाणसे बाधा और पूर्वापरविरोध न पाया जाता हो, वही आगम शिष्टपुरुषोंके द्वारा श्रद्धाकरनेयोग्य – प्रमाण मानतेयोग्य है ।
भाषार्थ :- जो आगम श्रेयस्कारक सत्कर्तव्योंकी प्रतिष्ठा करनेवाला और पूर्वापर के विरोधसे रहित हो वही शिष्टपुरुषों द्वारा प्रमाण मानने योग्य है। आचार्यश्रीने ' यशस्तिलक्रमें लिखा है कि 'जो शास्त्र पूर्वापर विरोध के कारण युक्ति से बाधित है वह मत्त और उन्मत्तके वचनों के तुल्य है अतः क्या यह प्रमाण होसकता है ? नहीं हो सकता ||१||
निष्कर्ष :- श्रीसराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी सीर्थङ्करों द्वारा भाषित द्वादशाङ्ग आगम श्रमधर्मा समर्थक होने से पूर्वापर विरोधरहित होनेके कारण अपने सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा करता है इसलिये शिष्ट पुरुषोंके द्वारा प्रमाण मानने योग्य है ||२५||
१ तथा च भागुरि :―
विधिना विदितं कृत्यं परं श्र ेयः प्रयच्छति । विधिना रहितं यच्च यथा भस्महुतं तथा ॥ | १ || निषेधं यः पुरा कृत्वा कस्यचिद्वस्तुनः पुमान् ।
देव सेवते पश्चात् सत्यहीनः स पापकृत् ॥ २शा
२ मु० म० पु० "स्वप्रमाण्वाध]" ऐसा पाठ है ।
३] पूर्वापर विरोधेन यस्तु युक्त्या च वाध्यते । मत्तोमत्वचः प्रख्यः स प्रमादं किमागमः ||१|| यशस्तिलके ।