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* नीतिवाक्यामृत *
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देव नामके विद्वानने' भी उक्त, यातका समर्थन किया है कि 'उस लोभीकी सम्पत्तिसे क्या से वह अपनी स्त्रीके समान केवल स्वयं भोगना है तथा जिसकी सम्पत्ति वेश्याके समान या पान्धोंके द्वारा नहीं भोगी जाती ||१|| पयोग बनाकर नैतिक व्यक्तिको अधिक लोभ करना उचित नहीं है इसका कथन करते हैं :अर्थिषु संविभागः स्वयमुपभोगश्चार्थस्य हि हे फले, नास्त्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य ।।१६||
-सम्पत्तिके दो ही फल है । (१) पात्रोंको दान देना और () स्वयं उपभोग करना। तिरुपको निरन्सर लोभ करना उचित नहीं ।।१६।।
नाम विद्वानने कहा है कि ब्राह्मण भी लोभके घश होकर समुद्र पार करता है और हिंसा
बामापण आदि पापी प्रवृत्ति करता है इसलिये अधिक मात्रा में लोभ नहीं करना चाहिये ।।१।। * सुभाषितरत्नभाण्डागारमें लिखा है कि कृपण (लोभी) और कृपाण (तलवार) इसमें केवल "श्रा" की माली भेद है अर्थात कृपण शब्दके "प" में हम्न "अ" है और “कृपाण" शब्दके “प।' विद्यमान है बाकी सर्व धर्म समान हैं; क्योंकि कृपण अपने धनको मुष्टि में रखता है और की मुट्ठी में धारणकी जाती है। पने कोप (खजाने) में बैठा रहता है और तलवार भी कोष (भ्यान) में रवायी जाती है । कृपण
है और तलषार भी मलिन (कालेरंगकी) होती है। इसलिये कृपण" और "कृपाण' में भावारका ही भेद है अन्य सर्व धर्म समान हैं। वार्थ:-जिसप्रकार तलवार घातक है उसी प्रकार लोभीफा धन भी धार्मिक कार्यो न लगनेसे
है, क्योंकि इससे उसे सुत्र नहीं मिलता उल्टे दुर्मतिके दुःख होते हैं ॥१॥ किनक्तिके सत्कर्तव्यका निर्देश करते हैं :HEानप्रियवचनाभ्यामन्यस्य हि सन्तोपोत्पादनमौचित्यम् ॥१७॥
मर्थ :-वान और प्रिय बपनोंके रा दूसरोंको सन्तुष्ट करना यह नैतिक मनुष्यका उचित
याच बरुमभदेव :- क तयर क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिच दिला । ...या न वेश्येव सामान्य। पयिकरुपभुज्यते ॥१॥
शोभात् समुद्र तरण लोभास् पारनिवर्ण । . माझयोऽनि करोत्यत्र तस्मात्तं नातिकारयेत् ॥1॥
सुभाषितरत्नभाण्डागारेच :-- ...दर निबद्धमुटे: कोपनिषण्णस्य सह जमलिनस्य ।
हास्य कृपाणस्य-च केवलमाकारतो भेदः ||
यह सूत्र संस्कृत टीका उस्तकमें नहीं है, नु० पू० पुस्तकले संकलन किया गया है।