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प्रियदर्शिनी टीका गा. २१ आसनविनयः
१३५ प्रेक्षितुं शीलमस्येति तथा, असौ गुरूणां प्रसादः-यदन्येषां शिष्याणां सद्भावेऽपि गुरवो मामाज्ञापयन्तीति विचारशील इत्यर्थः । यद्वा-केन विधिना गुरुः प्रसन्नो भवेदिति भावनाभावितः, गुरुप्रसादलाभार्थी इति यावत् । उक्तश्च
जो नत्थि भग्गसाली, नो सो गुरुदेसणं इहं लभए ।
धारामियस्स निवडइ, अंगेणो पुनहीणाणं ॥१॥ छाया-यो नास्ति भाग्यशाली, नासौ गुरुदेशनामिहालभते ।
धाराऽमृतस्य निपतति, अङ्गे नो पुण्यहीनानाम् ॥१॥ तथा नियागार्थी मोक्षार्थी शिष्यः गुरूं-धर्माचार्यादिकं, सदा उपतिष्ठेत्'मत्थएण वंदामि' इत्यादि वदन् सविनयं गुरुसमीपे तिष्ठेदित्यर्थः ॥२०॥ जावे, अथवा किसी कार्य करने के लिये कहा जावे-तब वह (कयाइविंकदाचिदपि) कभी भी (तूसणीओ न-तूष्णीकः न भवेत् ) उत्तर दिये विना नहीं रहे चाहे बीमार भी होवे तो भी चुपचाप न रहे । (पसायपेही-प्रसादप्रेक्षी) यह समझे कि मेरा बड़ा भारी सौभाग्य का उदय है, जो अन्य शिष्यों के होने पर भी गुरु महाराज मुझे ही आज्ञाप्रदानकर रहे हैं । अथवा-यह विचार करे कि गुरु महाराज जिस उपाय से मेरे पर प्रसन्न हों वही उपाय मुझे करते रहना चाहिये । इस प्रकार की भावना से भावित होकर गुरु के प्रसाद का लाभार्थी बने । क्यों कि कहा भी है-जिस प्रकार हीन पुण्यवालों के शरीर ऊपर अमृत रस की धारा नहीं पड़ती है-उसी प्रकार जो शिष्य भाग्यशाली नहीं होता है वह गुरु की देशना का पात्र नहीं होता है। इसी तरह (नियागट्ठी) मोक्षाभिलाषी शिष्य का कर्तव्य है कि वह (सया गुरुं उवचिट्टे-सदा गुरुं
જ્યારે તેને બેલાવવામાં આવે અથવા કેઈ કામ માટે કહેવામાં भावे त्यारे कयाइविं-कदाचिदपि ते हि ५५ तुसणीओ न-तुष्णीकः न भवेत् उत्तर આપ્યા વગર ન રહે. ચાહે તે બીમાર હોય તે પણ ચુપચાપ ન રહે. पसायपेही-प्रसादप्रेक्षी ते सतुं समरे, भासौभाग्यन मोटो ध्य છે કે, બીજા શિષ્યો હોવા છતાં પણ ગુરુ મહારાજ મને જ આજ્ઞા આપે છે. અથવા એ વિચાર કરે કે ગુરુ મહારાજ જે ઉપાયથી મારા ઉપર પ્રસન્ન રહે તે જ ઉપાય મારે કરતા રહેવું જોઈએ. આ પ્રકારની ભાવનાથી ભાવિક બનીને ગુરુને પ્રસાદને લાભાર્થી બને. કેમકે, કહ્યું છે કે જે પ્રકારે દુર્ભાગીના શરીર ઉપર અમતરસની ધાર પડતી નથી, એ પ્રકારથી જે શિષ્ય ભાગ્યશાળી नथी हातात शुरुनी देशनाने पात्र मनत। नथी. माशते नियागट्री-भाक्षालिदाषी शिष्यनु तव्य छे ते सया गुरुं उवचिठे-सदा गुरुं उपतिष्ठेत् हमेशा
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧