Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका. अ०१ गा. ३६ वागयतना
२३९ ___'सुकृतम्' इत्यनेन सूपनिष्ठानादिसंपादने लवणलक्षणपृथिवीकायादिजलतेजोवायुवनस्पतिद्वीन्द्रियादित्रसजीवपर्यन्त हिंसानुमोदनं सूचितम् । एवं सुप कमित्यत्रापि हिंसानुमोदनं बोध्यम् ।
सुच्छिन्नमित्यनेन-वनस्पतिद्वीन्द्रियादिहिंसानुमोदनं सूचितम् । सुहृतमित्यनेन कारवेल्लादिपक्षे वनस्पत्यादिहिंसानुमोदनम्, धनहरणपक्षेऽदत्तादानपरपीडोत्पादनाद्यनुमोदन सूचितम् । मृतमित्यनेन पारदादिधातुपक्षे पृथिवीकायादि हिंसानु
'सुकृतम्' इस पद से सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जब साधु ऐसा कहता है कि यह दाल आदि बहुत ही अच्छी बनी हैं तब उसे लवणरूप पृथिवीकाय तथा जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं द्विन्द्रियादिक त्रस काय, इन सबकी हिंसा की अनुमोदना करने का दोष लगता है। इसी प्रकार सुपक्क कहने में भी यही दोष लगते हैं। ___'सुच्छिन्नम्' इस पद से सूत्रकार यह बात सूचित करते हैं कि यदि मुनि 'ये शाकपत्रादि चाकू आदि से अच्छी तरह काटे गये हैं' ऐसा कहता है तो उसे वनस्पति काय की एवं द्वीन्द्रियादिक त्रसकाय की हिंसा की अनुमोदना करने का दोष लगता है । 'सुहृतम्' यदि यही बात धन हरण आदि के पक्ष में जब बोलने में आती है तो उस समय उसे अदत्तादान की अनुमोदना करने का तथा पर को पीड़ा उत्पन्न कर ने आदि की अनुमोदना का दोष लगता है। 'मृतम् ' इस
___ “सुकृतम्' मा ५४थी सूत्र४।२ से १४८ ४२ छ है, साधु न्यारे सेम કહે છે કે, આ દાળ વગેરે ખૂબ સ્વાદિષ્ટ બનેલ છે. ત્યારે તેને લવણ રૂપી પૃથવીકાય, જળકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય, વનસ્પતિકાય અને દ્વિન્દ્રિયાદિક ત્રસકાય આ બધાની હિંસામાં અનુમોદના કરવાને દોષ લાગે છે. આ રીતે सुपकम् ४ाथी ५ ॥ ष सागे छे.
सुनिच्छन्नम् ॥ ५४थी सूत्र४।२२। पात सूचित ४२ छ , भुनिने ॥ પત્રાદિક ચાકુ વગેરેથી સરસ રીતે કાપવામાં આવેલ છે. એવું કહે છે તેને વનસ્પતિ કાય અને દ્વીન્દ્રિયાદિક ત્રસકાયની હિંસા કરવામાં અનુमोहन ४२वाना होष दाणे . सुहृतम् मावी ४ शत धन २९१ पोरेनी બાબતમાં બેલવામાં આવે ત્યારે તેને અદત્તા દાનની અનુમોદન કરવાને તથા બીજાને પીડા ઉત્પન્ન કરવી વગેરેની અનમેદનને દેષ લાગે છે નૃતમ એ પદથી
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧