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उत्तराध्ययनसूत्रे 'गामानुगामं रीयंतं ' इत्यनेन रागादिनिवृत्तिः सूचिता। 'अकिंचणं ' इत्यनेन ममत्वरहितत्वं प्रवेदितम् । 'अरईअणुप्पवेसेज्जा' इत्यनेन शब्दादिविषयाणां प्रबलता प्रदर्शिता । 'तितिक्खे' इत्यनेनानगारस्य परीषहसहिष्णुता मुचिता ॥ १४ ॥ उक्तमर्थं द्रढयन्नाहमूलम्-अरंइं पिट्ठओ किंचा, विरओ आयरैक्खिए ।
धम्मारामे निरारंभे, उर्वसंते, मुंणी चरे ॥१५॥ छाया-अरति पृष्ठतः कृत्वा, विरतः आत्मरक्षितः।
धर्मारामे निरारम्भः, उपशान्तः मुनिश्चरेत् ।। १५॥ टीका-'अरई' इत्यादि।
विरतः हिंसादिभ्यो निवृत्तः, आत्मरक्षितः-आत्मा रक्षितः नरकनिगोदादिचतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण होता है" यह समझकर इस संयम विषयक अरति को साधु मनसे भी हटाते रहे।
सूत्रकार ने “ग्रामानुग्रामं” इस पद से रागादिक की निवृत्ति सूचित की है। " अकिंचणं" इस पद से मुनि को ममत्वरहित प्रदर्शित किया है ॥ " अरई अणुप्पवेसेज्जा" इस पद से शब्दादिक विषयों की प्रबलता प्रकट की है। “तितिक्खे" इससे 'अणगार को परीषह सहिष्णु होना चाहिये' यह कहा है ॥ १४ ॥
इसी अर्थ को दृढ करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' अरइं पिट्ठओ' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(विरओ-विरतः) हिंसादिक पापोंसे विरक्त तथा (आयरखिए-आत्मरक्षितः) नरकनिगोदादिकके दुःखोंके जनक अशुभ ध्यानसे પરિભ્રમણ થાય છે. એવું સમજીને આ સંયમ વિષયક અરતિને સાધુએ મનથી પણ હટાવવી જોઈએ.
સૂત્રકારે પ્રામાનુબ આ પદથી રાગાદિકની નિવૃત્તિ સૂચિત કરેલ છે.
अकिंचणं-मा ५४थी मुनिन ममत्व २डित प्रहशित ४२८ छ. अरईअणुप्पवेसेज्जा २॥ ५४थी श६ विषयानी प्रणता प्रगट ४२० छ. "तितिक्खे" આથી અણગારે પરીષહ સહિષ્ણુ બનવું જોઈએ તેમ કહ્યું છે. ૧૪
॥ मथन द्र० ४२ता सूत्रा२ ४९ छे. अरईपिओ त्याहि. म-qयार्थ-विरओ-विरतः डिसा पापाथी वि२४ तथा आयरक्खिए-आत्मरक्षितः न२४निगोहानि:सन सेवा मशुम ध्यानथी याताना मात्मानी रक्षा
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧