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प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजयः दुःखजनकादशुभध्यानाद् येन स तथा, यद्वा-आयरक्षित इतिच्छाया, आयःरत्नत्रयस्य लाभः, रक्षितो येन स तथेत्यर्थः । निरारम्भः सावधक्रियावर्जितः, तथा उपशान्तः क्रोधादिकषायोपशमाद् मनोवाकायविकारवर्जितः मुनिः, अरतिं पृष्ठतः कृत्वा-इयं धर्मविराधिकेति मत्वा परित्यज्य धर्माराम चरेत् , इत्यग्रेण सम्बन्धः । ___ अरतिर्हि धूलिरिवात्मानं मलिनयति, जलदपटलावलीसंकुला गाढतिमिरपरिव्याप्ता रजनीव विवेकं संहरति, अविवेकं वर्धयति, वज्रमिव ज्ञानादिगुणानुपघातयति, अविवेकिजनमनःकानननिवासिनी कृष्णसर्पिणीव छिद्रान्वेषणपरा मुनीनां अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला अथवा "आयरक्षितः" रत्नत्रयलाभरूप आय-आवक की रक्षा करने वाला-संभाल रखनेवाला, तथा (निरारंभे-निरारंभः) सावध क्रिया के सेवन से वर्जित, तथा (उवसंते -उपशांतः) क्रोधादिक कषाय के उपशम से मन वचन एवं काय संबंधी विकारों से रहित (मुणी-मुनिः) साधु (अरई पिट्ठओ किच्चाअरतिं पृष्ठतः कृत्वा) अरति का परित्याग कर (धम्मारामे-धर्मारामे ) धर्मरूपी उद्यान में (चरे-चरेत्) सदा लवलीन रहे-उस में सर्वदा विचरता रहे।
यह अरतिभाव धूली की तरह आत्मा को मलिन करता है। बादलों के समूह से संकुल एवं गाढ अन्धकार से व्याप्त रात्री के समान यह विवेकरूपी सूर्य को आच्छादित करदेता है, एवं अविवेकरूपी अन्धकार की वृद्धि करता है । वज्र की तरह ज्ञानादिक गुणरूप पर्वत का भेदन करता है । यह अरतिभाव अविवेकी जन के मनरूप ४२वावा अथवा "आयरक्षितः” रत्नत्रय साम३५ माय-मानी २१॥ ४२१।. १-समा रामवाण निरारंभे-निरारंभः तथा सावधयाना सेवनयी १ळत उवसंते-उपशांतः लोपाहि ४ायना अ५शमथी मन पयन मने 4 संधी विरोथी २हित मुणी-मुनिः साधु अरइपिओ किच्चा-अरति प्रष्ठतः कृत्वा अतिन! त्या ४२री धम्मारामे-धर्मारामेधर्मपी धानमा चरे-चरेत् એમાં સદા વિચરતા રહે.
આ અરતિભાવ ધુળની માફક આત્માને મલીન કરે છે. વાદળના સમૂહથી છવાયેલ અને ગાઢ અંધકારથી વ્યાપ્ત રાત્રિના સમાન એ વિવેકરૂપી સૂર્યને આચ્છાદિત કરે છે, અને અવિવેકરૂપી અંધકારની વૃદ્ધિ કરે છે. વજની માફક જ્ઞાનાદિક ગુણરૂપ પર્વતનું ભેદન કરે છે. આ અરતિભાવ અવિવેકી માણસના
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧